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परन्तु जैनकर्म विज्ञान प्रारम्भ से ही नैतिक-धार्मिक आचरण (शुभकर्म) पर जोर देता है। वह केवल ईश्वर (परमात्मा = अर्हन्त एवं सिद्ध) पर विश्वास करने मात्र से या उनके द्वारा बताए हुए नैतिकता और धार्मिकता के यम-नियमों को मानने-सुनने मात्र से अथवा उन पर लम्बी चौड़ी व्याख्या कर देने से किसी व्यक्ति का उसे पाकर्म से उद्धार नहीं मानता। जब तक पापकर्मी व्यक्ति अपने पापकर्मों की आलोचना निन्दना (पश्चाताप), गर्हणा और क्षमापन द्वारा शुद्धिकरण नहीं कर लेता, तब तक वह पापकर्मों से छुटकारा नहीं पा सकता। उसे इस जन्म में या फिर अगले जन्म या जन्मों में अपने अनैतिक कुकर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। इसी प्रकार सत्कर्म करने वाले या कर्मक्षम रूप धर्मीकरण करने वाले व्यक्तियों पर तो परमात्मा का अनुग्रह स्वतः ही होता है। उसे परमात्मा का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए उनकी खुशामद करने की, या पूजा पत्री भेंट चढ़ावा आदि की रिश्वत नहीं देनी पड़ती। उसे अपने किये हुए सत्कर्मों या सद्धर्मों (शुद्ध कर्मों) का फल देर-सबेर से अवश्य मिलता है। नैतिकता के सन्दर्भ में जैनकर्म विज्ञान इसी तथ्य को व्यक्त करता है। यही कारण है कि जैनकर्म विज्ञान को मानने वाला व्यक्ति हिंसादि पापकर्म करते हुए हिचकिचाएगा। नरकायु और तिर्यञ्चायुकर्म बन्ध के कारण
जैन कर्म विज्ञान की स्पष्ट उद्घोषणा है कि "महारम्भ (महाहिंसा), महापरिग्रह, पंचेन्द्रियवध, और मांसाहार नरकगमन (गति) के कारण है, माया (कपट), गूढ माया (दम्भ) झूठा तौल नाप करे, ठगी (वंचना) करे तो प्राणी तिर्यन्चगति प्राप्त करता है।" इसमें कोई भी ईश्वर , देवी-देव या शक्ति उसे अपने पापकर्मों (अनैतिक आचरण) के फल से नहीं बचा सकता। वह स्पष्ट कहता है कि कारण अनैतिकता का होगा, तो उसका कार्य नैतिकता के फल का कदापि नहीं होगा। १५ ईस्लाम धर्म में नैतिक आज्ञाएँ हैं, पर अमल नहीं
यद्यपि इस्लाम धर्म में भी अनैतिक कर्मों से बचने और नैतिक कर्म (आचरण) करने का 'कुरानशरीफ' आदि धर्मग्रन्थों में विधान है। वस्तुतः इस्लाम धर्म नैतिकता प्रधान है। उसके नैतिक विधानों का उल्लेख करते हुए ‘डॉ. निजाम उद्दीन' लिखते हैं - जब हम सामाजिक कर्मों (मनुष्य अन्य मनुष्यों के साथ व्यवहारों) की ओर ध्यान देते हैं तो निम्न बातें सामने आती हैं -(१) अपने सम्बन्धियों,
याचकों दीन-निर्धनों, अनाथों को अपना हक दो, (२) मितव्ययी बनो, फिजूल खर्च करने वाले शैतान के भाई हैं, (३) बलात्कार के पास भी न फटको, यह बहुत बुरा कर्म है।, (४) अनाथ की माल-सम्पत्ति पर बुरी नियतमत रखो। (५) प्रण या वचन की पाबन्दी करो, (६) पृथ्वी पर अकड़ कर मत चलो, (७) न तो अपना हाथ गर्दन से बांध कर चलो और न उसे बिलकुल खुला छोड़ो, कि भर्त्सना, निन्दा या विवशता के शिकार बनो (८) माता-पिता के साथ सदव्यवहार करो। यदि उनमें से कोई एक या दोनों वृद्ध हो कर रहें तो उन्हें उफ तक न कहो, न उन्हें झिड़क कर उत्तर दो, वरन् उनसे आदरपूर्वक बातें
१५. (क) चउहिं ठणेहिं जीवा जेरइयाउयत्ताए कम्यं पकरेति , त.. महारमतभए, महापरिग्गहयाए, पंचिंदियवहण,
कुणिमाहारेणं। (ख) चउहिं ठाणेहिं जीवा तिरिक्खजोणिय (आउय) त्ताएकम्मं पगरेति, तं. जहा माइल्लताए णियडिल्लताए अलियंवयणेणं कुडतुल-कुडमाणेणं। - स्थानांग सूत्र. ४।४ सूत्र. ६२८-६२९
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