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हिन्दी काव्य के विकास में जैन श्रमणियों का योगदान
कन्हैयालाल गौड़
साहित्य मनीषियों ने आत्म तथा अनात्म भावनाओं की भव्य - अभिव्यक्ति को साहित्य की संज्ञा दी है । यह साहित्य किसी देश, समाज अथवा व्यक्ति का सामयिक समर्थक नहीं, वरन् सार्वदेशिक और सार्वकालिक नियमों से प्रभावित होता है । मानव मात्र की इच्छाएँ, विचार धाराएँ और कामनाएँ साहित्य की स्थायी सम्पत्ति है। साहित्य में साधना और आनुभूति के समन्वय से समाज और जगत् से ऊपर सत्य और सौन्दर्य का चिरन्तन रूप पाया जाता है।
हिन्दी की जैन श्रमणियों ने अपनी रचनाओं में आत्मभाव सत्यता के साथ अभिव्यक्त किया है। जैन श्रमणियों ने आध्यात्मिक अनुभूति की सच्चाई को अन्योक्ति और समासोक्ति में बड़ी मार्मिकता के साथ व्यक्त किया है। इन श्रमणियों की आध्यात्मिक भावना में हृदय को समतल पर लाकर भावों का सार समन्वय उपस्थित किया है। जीवन के सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, आकर्षण - विकर्षण को दार्शनिक दृष्टिकोणों से प्रस्तुत करने में मानव भावनाओं का गहन विश्लेषण किया गया है।
हिन्दी की जैन श्रमणियों ने समय-समय पर हिन्दी में कविता का निर्माण कर हिन्दी काव्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इन जैन श्रमणियों का रचना काल १४ वी शती से लेकर २०वीं २१वीं शती तक रहा है जिनका यहाँ उल्लेख किया जा रहा है।
१. गुणसमृद्धि महत्तरा यह महत्तरा खतरगच्छीय जिनचन्द्र सूरि की शिष्या थी । इन के द्वारा रचित प्राकृत भाषा में ५०२ श्लोकों में निबद्ध अंजणा सुन्दरी चरिंय ग्रन्थ वर्तमान में भी जैसलमेर के भंडार में विद्यमान है। इसमें हनुमान जी की माता अंजना सुन्दरी का चरित्र वर्णित है। इस रचना की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इसकी रचना वि.सं. १४७७ में चैत्र सुदी त्रयोदशी के दिन जैसेलमेर में की गईं
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सिरि जैसलमेर पुरे विक्कमच उदसहसतुत्तरे वरिसे। वीर जिण जन्म दिव से कियमंजणि सुन्दरी चरियं ॥ ४९२ ॥
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२. सिरिमा महत्तरा आपश्री जिनपति सूरि की आज्ञानुवर्ती साध्वी थीं। इन्होंने २० गाथाओं की एक रचना जिनपति सूरि बधामणा गीता सं. १२३३ के आस पास लिखा । इसमें सं. १२३२ की एक घटना का उल्लेख है “आसी नयरि बघावणड आयउ जिणपित सूरि"
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जिन चंद सूरि सीसु आश्या लो वघावणउ बजावि- । सुगुरुजिपति सूरि आविया लो आंकणी - 1
१- मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ (व्यावर) पृ. ३०२
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