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साध्वी जीवन एक चिन्तन
श्रमणियों का सांगोपांग वृहत् इतिहास एक स्वतंत्र ग्रंथ का विषय है। साथ ही एतदर्थ विस्तृत शोध एवं चिन्तन की भी आवश्यकता है। वर्तमान अवसर्पिणी काल की प्रथम साध्वी आदि तीर्थकर भगवान ऋषभदेव की कन्याएं ब्राह्मी एवं सुन्दरी हैं। जिन्हें भगवान ऋषभदेव द्वारा ३,००००० (तीन लाख) साध्वियों की प्रमुखा बनाया गया। श्रमणी इतिहास के सन्दर्भ में भावी तीर्थंकर श्री कृष्ण वासुदेव की पटरानियाँ पद्मावती, गौरी, गांधारी, लक्ष्मणा, सुषमा, जाम्बवती, सत्यभामा, रूक्मिणी आदि के नाम उल्लेखनीय है। जिन्होंने श्री अरिष्टनेमि प्रभु से दीक्षित होकर यक्षिणी नामक महासती की शिष्याएं बनकर आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया था।
जाम्बवती के पुत्र शाम्बकुमार की विदुषी पत्नी मूलदत्ता एवं मूलश्री ने दीक्षित होकर मोक्ष प्राप्त किया। भगवान् महावीर की ३६,००० शिष्याओं की प्रमुखा महासती चन्दनबाला थी। कौशाम्बी नरेश सहस्रानिक की पुत्री एवं शतानिक नृप की भगिनी जयन्ती-श्राविका एवं पत्नी रानी मृगावती, मगध सम्राट बिम्बिसार श्रेणिक की नन्दा, नन्दावती, काली. सकाली इत्यादि २३ रानियों ने महासती चन्दनबाला के पास दीक्षा स्वीकार की। इस अवसर्पिणी काल की तीर्थंकर कालीन साध्वियाँ ४५,५८,००० (४५ लाख ५८ हजार) थी, जबकि साधु २८४६००० (२८ लाख ४६ हजार) ही थे। (२) वर्तमान में जैन संघ के ९९७४ साधु एवं साध्वियों है, जिनमें ७६८७ साध्वियाँ है। (३)
__ भगवान महावीर के निर्वाण पश्चात् इस श्रमणी परम्परा के अन्तर्गत साध्वी याकिनी महत्तरा को विस्मृत नहीं किया जा सकता है, जिसने आचार्य हरिभद्र सूरि को अपने गुरु जिनदत्त सूरि के चरणों में दीक्षित किया था। एक हजार से कुछ वर्ष पूर्व धारा नगरी के राजा मुंजदेव की महारानी कुसुमावती ने संयम ग्रहण कर इतिहास की गरिमा में अभिवृद्धि की।
तप साधना के क्षेत्र में रानियों महारानियों ने श्रमणी जीवन अपनाकर रत्ना कनकावली आदि तपाराधना कर अमर लक्ष्य को प्राप्त किया है।
चन्दनबाला के साध्वी संघ में पुष्पचूला, सुनन्दा, रेवती, सुलसा, मृगावती, जयन्ती आदि प्रमुख रानियाँ थी। सीता, द्रौपदी, अंजना, कलावती, दमयन्ती आदि साध्वी जीवन का दर्शन आज मानव मात्र के लिए अनुकरणीय बन गया है। ज्ञाताधर्म कथांग सूत्र के मल्ली अध्ययन में विवाह के लिए आए हुए सातों राजकुमारों को उद्बोधन देने वाली मल्ली कुमारी का आदर्श चिरस्मरणीय बन गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में वर्णित राजमति ने एकान्त के क्षणों में कामयाचना करने वाले पुरुष से अपने सतीत्व की रक्षा ही नहीं अपितु उसे (देवर रथनेमि को) प्रतिबोध देकर पुनः सन्मार्ग पर लौटाया है।
बौद्ध एवं जैन दोनों ही युगों में भिक्षुणियों का अस्तित्व था। सामाजिक एवं पारावारिक जीवन से उदासीन होकर आत्मिक ज्ञान प्राप्त कर नारी ने भिक्षुणी-संघ में शरण ली है।
२- तीर्थकर चरित्र - रतनलाल डोसी सेलाना ३- समग्र जैन चातुर्मास सूची १९९० प्रकाशन परिषद, बम्बई
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