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________________ उन्हें द्वेष रूप प्रगाढ़ ग्रन्थियों का उन्मूलन करती है और वह चेतनाशील मन से विन बाधाओं पर विजयश्री प्राप्त करती है। चरम लक्ष्य की ओर अग्रसर होती है। वह अपने आप में ज्योति स्वरूपा है। वह ज्योति इस अर्थ में है कि वह स्वयं प्रकाशमान होती है। अन्य भव्यात्माओं को भी आलोकित कर देती है। जिससे वे भव्य आत्माएं कुमार्ग से पराङ्मुख होकर सन्मार्ग की ओर प्रस्थित होती है। श्रमणी न केवल ज्योति है अपितु वह अग्नि शिखा भी है वह अग्निशिखा इस रूप में है कि अपने जन्म जन्मान्तरों के कर्मकाष्ठ को जला देती है और उसके पावन सम्पर्क में समागत भव्य आत्माएं भी अपने चिरसंचित कर्मघास को भस्मसात् कर देती है। इसी अवसर्पिणी काल चक्र के प्रथम तीर्थकर भगवान्, ऋषभदेव की माता ने द्रव्य की दृष्टि से संयम मार्ग अंगीकृत नहीं किया है पर भाव की अपेक्षा से संयम की और चारित्र की पूर्णता के कारण ही ; मिल गयी थी। माता मरुदेवी के बाद भगवान ऋषभदेव की दो समादरणीया पत्रियाँ ब्राहमी और सुन्दरी का सविस्तृत विवरण जैन साहित्य में उपलब्ध है। सांसारिक अवस्था में उनकी उपलब्धियों की चर्चा करना यहाँ प्रासंगिक नहीं होगा। किन्तु इतना उल्लेख करना नितान्त अपेक्षित होगा कि उन दोनों वैराग्यमर्ति अखण्ड बाल ब्रह्मचारिणी पवित्र हृदया बहिनों ने संयम मार्ग अंगीकार कर स्वयं का कल्याण किया और साथ ही इन दोनों बहिन साध्वियों ने अपने भ्राता सरलमना तप की अखण्डमूर्ति बाहुबलि को भी वास्तविकता का परिबोध देकर लाभान्वित किया। उनके जीवन का एक संस्मरण स्मृति के आकाश में नक्षत्र की भांति चमक उठा है। बाहुबलि ने दीक्षा अंगीकार की उसके पश्चात् अतिघोर तपश्चरण में संलग्न हुए। उनकी यह तपस्या पराकाष्ठा पर पहुँच गयी। तथापि वे केवलज्ञान की शाश्वत ज्योति से उद्भासित नहीं हुए। इसका एक मात्र कारण यह था उनके अन्तर्मन में इस बात को लेकर ज्वार के समान कुछ ऐसा ही दृश्य उठ रहा था कि संयम साधना में ज्येष्ठ अपने लघुभ्राताओं को वंदन नमन कैसे करें। ज्येष्ठ होकर अनुजों को वन्दन? नहीं। यह असम्भव है। उनके मन में यही अहंकार व्याप्त था जो वास्तव में मिथ्यापूर्ण था। और सुन्दरी इन दोनों ने उनके निकट आकर उद्बोधन के स्वर में कहा -हे भाई! गज से उतरो। जब तक आरूढ रहेंगे तब तक आपको केवल ज्ञान की अखण्ड अनन्त दिव्य ज्योति प्राप्त नहीं हो पाएगी। बहिनों के ये शब्द बाहुबलि के कर्णकुहरों में ज्योहि पड़े त्योंहि वे चिन्तन के गहरे सागर में डूब गये। गज-यहाँ वन में गज कहा है और इसी अनुक्रम में उनके चिन्तन में सहज रूप में मोड़ लिया। मैं कब से मानरूपी गज पर आरूढ़ हुआ हूँ। मेरा यह मान कितना मिध्या है। वे मेरे अनुज हैं तो क्या हुआ संयम में मुझ से ज्येष्ठ हैं। ज्येष्ठ होने के नाते मुझे उनकी वन्दना करनी चाहिये। बस यह विचार आते ही बाहुबलि भाइयों के सनिकट वन्दनार्थ जाने के हेतु अपना कदम बढ़ाते हैं कि उन्हें केवल ज्ञान की अनंत अक्षय ज्योति उपलब्ध हो जाती है। यदि ब्राह्मी और सुन्दरी उन्हें सचेत नहीं करती संक्षिप्त पर सार पूर्ण उद्बोधन नहीं देती उनके मिथ्याभ्रम की ओर ध्यान केन्द्रित नहीं कराती तो क्या उन्हें केवलज्ञान हो पाता? उक्त कथनानक के तात्पर्य से यह सुस्पष्ट है कि इन दोनों बहनों के निमित्त से उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ क्योंकि उपादान के लिए निमित्त का होना न केवल आवश्यक अपितु अनिवार्य है। निमित्त अपने स्थान पर महत्त्व रखता है और उपादान का भी अपना महत्त्व है। (३४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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