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तप, जप, त्याग, व्रत, नियम में नारी पुरुषों से आगे
सभी धर्मों के धर्मस्थानों को टटोला जाए तो स्पष्ट प्रतीत होगा कि पुरुषों की अपेक्षा महिलाएँ श्रद्धा-भक्ति, तप, जप, व्रत-नियम, त्याग-प्रत्याख्यान आदि धर्म क्रियाओं में आगे रही हैं। वैसे देखा जाए तो तप, जप, ध्यान, त्याग, नियम, व्रत, प्रत्याख्यान आदि से आत्मा की शक्तियाँ तो विकसित होती हैं, किन्तु इनसे भूकम्प, बाढ़, दुष्काल, कलह, युद्ध, आतंक, उपद्रव, आदि परम्परा से अशान्ति के कारण भी दूर हो जाते हैं, अथवा अशान्ति कम हो जाती है। 'यदि तप, जप आयम्बिल के सहित समूहिक रूप से व्यवस्थित ढंग से किये जाएँ तो निःसन्देह अशान्ति के बीज नष्ट हो सकते हैं। तप, जप. त्याग आदि पूरी समझदारी और सूझबूझ से किये जाएँ तो शारीरिक और मानसिक बल एवं स्वास्थ्य आदि में वृद्धि हो सकती है। महिलाओं को अवसर मिलना चाहिये -
आज भी जीवन के हर क्षेत्र की प्रतियोगिता में नारी अपनी प्रतिभा का परिचय दे रही है, दे सकती है। उत्तर दायित्व का जो भी कार्य महिलाओं को सौंपा जाता है, उसे वे सफलता के साथ सम्पन्न करती हैं। भारतीय धर्मग्रन्थ भी एक स्वर से कहते हैं -
'यत्र नार्यस्त पुज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।'
“जहाँ नारियों की पूजा-भक्ति होती है, वहाँ देवता (दिव्य पुरुष) क्रीड़ा करते हैं।' यह प्रतिपादन अक्षरशः सत्य है। वस्तुतः नारी शान्ति और भावना की मूर्ति है -
नारी समाज का भावपक्ष है और नर है -कर्मपक्ष। कर्म को उत्कृष्टता और प्रखरता भर देने का श्रेय भाड़ना को है। नारी का भाव-वर्चस्व जिन परिस्थितियों एवं सामाजिक आध्यात्मिक एवं धार्मिक क्षेत्रों में बढ़ेगा, उन्हीं में सुखशान्ति की अजस्त्र धारा बहेगी। माता, भगिनी, धर्मपत्नी और पुत्री के रूप में नारी सुख शान्ति की आधारशिला बन सकती है, बशर्ते कि उसके प्रति सम्मानपूर्ण एवं श्रद्धासिक्त व्यवहार रखा जाए। यदि नारी को दबाया-सताया न जाए तथा उसे विकास का पूर्व अवसर दिया जाए तो वह ज्ञान में, साधना में, तप-जप में, त्याग-वैराग्य में, शील और दान में, प्रतिभा, बुद्धि और शक्ति में, तथा जीवन के किसी भी क्षेत्र में पिछड़ी नहीं रह सकती। साथ ही वह दिव्य भावना वाले व्यक्तियों के निर्माण एवं संस्कार प्रदान में तथा परिवार समाज, एवं राष्ट्र की चिरस्थायी शान्ति और प्रगति में महत्वपूर्ण योगदान कर सकती है। परम्परा से विश्वशान्ति के लिए वह महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। नारी मंगलमूर्ति है, वात्सल्यमयी है, दिव्य शक्ति है। उसे वात्सल्य, कोमलता, नम्रता, क्षमा, दया सेवा आदि गुणों के समुचित विकास का अवसर देना ही उसका पूजन है, उसकी मंगलमयी भावना को साकार होने देना, विश्वशान्ति के महत्वपूर्ण कार्यों में उसे योग्य समझ कर नियुक्त करना ही उसका सत्कार-सम्मान है। तभी वह विश्वशान्ति को गकार कर सकती है।
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