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________________ 202888888888888888888888856dospaddibased 5808048066831503 जो पाया उनसे पाया 0 • साध्वी श्री तरुण प्रभा 'तारा' आमेट 20000000000 मेरे ज्ञान के दाता, आस्था के केन्द्र, सहिष्णुता की त्रिवेणी, जन-जन की आराध्या, यथानाम -तथा गुण, यशस्वी व्यक्तित्व की धनी, शासन प्रभाविका, पूज्यनीया सद्गुरुवर्या का पावन जीवन अज्ञानांधकार में भटकते प्राणी के लिये प्रेरणा का प्रकाश स्तम्भ था। आपके गुणों का संकीर्तन करना मेरे सामर्थ्य के परे है। आपकी गुणगरिमा को अभिव्यक्त करते समय मेरी स्थिति वैसी ही हो रही है जैसी कि महाकवि तुलसीदास ने कहा-सौ-मैं कहो कवन विधि बरनी, भमिनागु सिर धरई कि धरनी। आपके गुणों को अभिव्यक्त करने के लिए शब्दों की सीमा नहीं है। हिमालय के समान ऊंचाई और सागर के समान गहराई जिनके व्यक्तित्व में हो, उनके गुणों का वर्णन किस प्रकार किया जा सकता है। फिर आस्था/श्रद्धा को शब्दों का रूप किस प्रकार दिया जा सकता है, यह मेरे समझ में नहीं आ पा रहा है। गुरु की महिमा अपरम्पार है। उनकी महिमा को शब्दों में किस प्रकार अंकित किया जावे। वे मेरे जीवन के शिल्पकार थे। जैसे शिल्पी पाँवों में टकराते अनघड़ किन्त योग्य पाषाण को अपनी छैनी से सन्दर मूर्ति का आकार दे देता है उसे अर्चनीय बना देता है यह क्षमता शिल्पकार में ही है। मुझ जैसी अबोध, अनघड़ पत्थर को सद्गुणों की खान महान शिल्पी मिली थी सदगुरुवर्याश्री चम्पाकुंवर जी म.सा। जिन्होंने अपने सदुपदेश एवं सदाचार रूपी छैनी से मेरे जीवन को निखारा है। क्योंकि ज्ञान ग्रस्त मोहमुग्ध, सांसारिक प्राणी के जीवन को उचित मार्ग दर्शन प्रदान करने की क्षमता तो सदगुरु में ही निहित है। गुरु की महिमा अपरम्पार है। जिनका संयमनिष्ठ, तपपत जीवन सघन अंधकारा च्न प्राणी के लिये सर्चलाईट है। सद्गुरु के बिना कभी भी ज्ञान की किरणें नहीं मिल सकती। वि. स. २०३३ में सरलात्मा महासती श्री कानकुंवर जी म.सा का वर्षावास अपनी शिष्याओं सहित मेड़ता सिटी में हुआ था। तभी मुझे उनकी अन्तेवासिनी परम विदुषी साध्वी रत्न महासती श्री चम्पा कुंवर जी म.सा. के सम्पर्क में आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। आपके प्रथम दर्शन से ही मेरे मन में जो आल्हाद उत्पन्न हुआ, उसकी स्मृति मात्र से आज भी मन पुलकित हो उठता है और हृदय उनके प्रति आदर भाव से भर जाता है। प्रथम दर्शन में ही मैंने पाया कि महासती श्री चम्पाकुंवर जी म.सा सरल चित्त, प्रसन्नवदन और मिलनसार स्वभाव की एक मनस्वी यशस्वी, तेजस्वी और वर्चस्वी साधिका है। आपके सरल निश्छल और आत्मीय व्यवहार से मेरा मन भावविभोर हो जाता था। मुझे लगा कि आप सहृदयता शालीनता और सौम्यता की एक जीवंत प्रतीक है। आपसे ज्ञान-ध्यान सीखने में मुझे गौरव व आनन्द की अनुभूति होती थी। अनेक बार लम्बे समय तक वैराग्य काल में आपसे मिलने एवं साथ रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ था। नौखा में बहन कंचन की दीक्षा के प्रसंग पर दूसरी बार आपके दर्शन करने व चरणों में बैठने का सौभाग्य प्राप्त हआ। उस दिन आपके महिमा मंडित व्यक्तित्व से मझे दिव्य आकर्षण की अनभति हई और मैने निश्चय कर लिया कि मुझे भी सांसारिक आसक्ति से विरक्त होकर आत्मकल्याण के मार्ग पर अग्रसर होना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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