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________________ - - -- Deu Animlunkumakedabasurat साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ mmsmameend अपायविचय-अपाय दोष या दूषण का अनुभूति के साथ विचार करना अपायविचय है । अंतर्लोक में आत्म-निरीक्षण करते हुए चित्त में उत्पन्न राग, द्वेष, विषय, कषाय, असंयम आदि दोषों को अपाय है और उन अपायों को अनित्य जानकर उनके प्रति तटस्थ भाव बनाये रखना, उनके प्रवाह में न बहना, उनका समर्थन व पोषण न करना, उनके संसरण को देखते हुए उनसे अपने को भिन्न अनुभव करना अपायविचय है। विपाकविचय-अपाय (दोषों) से उत्पन्न विपाक (परिणाम) का विचार करना विपाकविचय है। अंतर्लोक में आत्म-निरीक्षण करते हुए संवेदनाओं में स्थूलता, जड़ता, मूर्छा, अनुकूलता (सुखद), प्रतिकूलता (दुखद), पुलकायमान, आदि स्थितियों का अनुभव करना विपाक है । विपाकरूप इन संवेदनाओं को अनित्य जानकर उनके प्रति समभाव बनाये रखना विपाकविचय है। संस्थनः विचय-पुरुषाकार लोक का आकार संस्थान कहलाता है। चित्त को शान्त कर अंतर्लोक में अन्तर्मुखी होकर देखने पर सम्पूर्ण अन्तर्लोक में चिन्मयता (चैतन्य) लोकातीत अवस्था का अनुभव होता है तथा दृश्यमान शरीर-संसाररूप सम्पूर्ण लोक से भिन्न निज स्वरूप का बोध होता है। लोक के स्वरूप का बोध करते हुए उसके प्रति समभाव बनाये रखना संस्थानविचय है। धर्मध्यान के लक्षण धर्म-ध्यान के चार लक्षण हैं(१) आज्ञा रुचि, (२) निसर्ग रुचि, (३) सूत्र रुचि, (४) अवगाढ़ रुचि। (१) आज्ञा रुचि--रुचि का अर्थ है रुचिकर, रोचक लगना, दिलचस्पी, मानसिक झुकाव । आणाए सच्चाए (आचारांग) सूत्र के अनुसार सत्य हो आज्ञा है । सत्य वह है जो शाश्वत है, कभी नहीं बदलता है, अविनाशी है । अविनाशी है निज स्वरूप । अतः अविनाशी निज स्वरूप के प्रति रुचि रखना, उसका अच्छा लगना, आज्ञा रुचि है। दूसरे शब्दों में, अविनाशी व मुक्तिरूपी ध्येय के प्रति रुचि होना आज्ञा रुचि है अथवा वीतराग मार्ग में रुचि होना आज्ञा रुचि है। (२) निसर्ग रुचि-सत्य व आज्ञा वही है जो कृत्रिम नहीं है प्रत्युत नैसर्गिक है । निसर्ग का अर्थ है जो किसी के द्वारा जित नहीं है, प्राकृतिक है । अतः प्रकृति से जो भी हमारे साथ घटित हो रहा है उसमें अपना हित समझना निसर्ग रुचि है । कारण कि जो भी घटित हो रहा है वह कर्मोदय का परिणाम है। इस प्रकार प्रकृति कर्मोदय कर कर्मों की निर्जरा करने का कार्य कर रही है, कर्म की निर्जरा हमारा हित ही है । यदि प्राकृतिक या नैसर्गिक रूप से हमारे कर्मों की निर्जरा स्वतः सतत न होती रहती तो प्राणी जड़ कर्मों के भार व संग्रह से जड़वत् हो गया होता। प्रकृति के विपरीत कार्य करना विकृति या विकार पैदा करना है । विकृति या विकार दोष है। दोष का परिणाम दुख है । अत. दोष व दुख से बचने के निसर्ग का सहारा लेना अनिवार्य है। इस दृष्टि से निसर्ग का अत्यन्त महत्व है। निसर्ग का विरोध कर कोई भी सफलता व सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता। ध्यान-साधक इस रहस्य को समझता है। अतः उसकी निसर्ग के प्रति रुचि होना स्वाभाविक है। निसर्ग से CN F धर्म-ध्यान : एक अनुचिन्तन : कन्हैयालाल लोढ़ा | ३७१ Ranthaviditainmit Head. CP S OPER www.jair 4 .
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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