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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन वान्।
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बड़े ही स्थूल रूप में सहायता करते हैं । साधक को स्वयं उत्तरदायित्य सम्भालना पड़ता है । मंत्र, विधि, गुरु-स्थान-मात्रा-संख्या-समय-आवश्यक रूप से मदद करते ही हैं, ऐसा नहीं; संकल्पना, इच्छा-शक्ति, स्पष्ट ध्येय महत्त्वपूर्ण हैं । बाहरी अवस्था कुछ अंशों में ही सहायक है, निरुपयोगी नहीं परन्तु अपरिहार्य भी नहीं। दुर्भाग्य से आधुनिक साधक माला-स्थान-समय-गुरु-मंत्र आदि तक आकर ही रुक गया है और 'गुरु' के तथाकथित अनुभवों का आधार ले बबन्डर/आडम्बर खड़ा करने का प्रयास कुछ समय तक करता है। यह अधिक समय तक नहीं चलता, सबको प्रभावित नहीं कर सकता और समयानुसार लुप्त हो जाता है ।
धर्म अध्ययन और प्रयोग का विषय है। उसके लिए दीर्घकालीन आस्थापूर्वक साधना की आवश्यकता है (यह विधान भी सापेक्ष है) धमें में छोटे-छोटे मागे (Shortcut) समझौते (Adjustment) के लिए स्थान नहीं है परन्तु समाज के नाम पर सब स्तरों पर समझौते हो चुके हैं । अब तो दूसरे के लिए जप करने वाले भी हैं और 'रामनाम' के बैंक भी हैं जहाँ खाते खोले जा सकते हैं ?
__उपर्युक्त दीर्घ विवेचन वस्तुतः अनुभव का विषय है-भक्ति शास्त्र में नवधा भक्ति का उल्लेख मानवी स्वतन्त्रता और आमरुचि-मर्यादाओं का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। जप साधना एक सुलभ, उपयुक्त आडम्बरहीन मार्ग है और स्वयं पर आस्था वाले साधक को इसका अनुभव हो सकता है (इस विधान के भी अनेक अर्थ लगाये जा सकते हैं-भाषा की मजबूरी) साधक का जीवन के प्रति दृष्टिकोण, समाज, इष्टदेव के प्रति भावना उसके सामाजिक जीवन को भी कुछ अंशों में प्रभावित कर सकती है- भक्ति में समन्वय, शरणागति आदि संकल्पनायें निराशावाद, भाग्यवाद आदि का भी कभी-कभी प्रादुर्भाव करा, देती है।
वास्तव में साधनामार्ग में साधक की जीवन के प्रति, सृष्टिकर्ता की योजना के प्रति, समाज के प्रति कृतज्ञता की भावना विकसित हो जाती है। रागद्वेष, घृणा, तुलना-अस्वीकृति, आलोचना कटुता और नकारात्मक भाव प्रायः नष्ट हो जाते हैं । नारद भक्तिसूत्र के अनुसार साधक कर्म करता है फल की ओर नहीं देखता, निर्द्वन्द्व रहता है, स्वयं मुक्त होता है और समाज को भी मुक्ति दिलाता है, मस्ती में रहता है, आत्मरत रहता है (असामाजिक नहीं), तृप्त रहता है, भागदौड़ कम हो जाती है, जीवन के प्रति दृष्टिकोण बदल जाता है और इस मस्ती में 'अन्य' अपने आप आने लगते हैं। तुलना-खींच-तान-भेदभाव जाति, लिंग भेद का कुछ परिणाम नहीं होता । यह सच्ची मुक्ति है । जीवन की क्रियायें सामान्य ही रहती हैं। आहार, वेषभूषा, दिनचर्या आदि में कुछ विशेष फरक नहीं पड़ता न ही उनका कुछ उपयोग है.... महत्व है।
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३६२ | सातवां खण्ड : भारतीय संस्कृति में योग
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