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नाम - साधना का मनोवैज्ञानिक विवेचन
-डा० ए० डी० बतरा (पुणे विश्वविद्यालय )
विज्ञान की प्रगति अनेक शास्त्रों को प्रभावित / प्रेरित कर रही है - इसका प्रभाव व्यापक रूप में जीवन के सभी आयामों में दिखता है, भौतिक और भावनिक (आध्यात्मिक) सभी क्षेत्रों में वैज्ञानिक जिज्ञासा अनुभव होती है । व्यक्तिगत विचार, निजी अनुभव, अपना मत आदि प्राचीन कल्पनायें निरर्थक सिद्ध हो रही हैं । व्यक्तिनिरपेक्ष विचार, शास्त्रीय स्तर, स्वयं मान्यता प्राप्त विचार अनुभव ही अब ग्राह्य माना जाता है । मनोविज्ञान का अर्थ प्रायोगिक मनोविज्ञान समझा जा रहा है। अनुभवजन्य मनोविज्ञान इतिहास का विषय बन चुका है । धर्म और धार्मिक विधायें अनुभव भी अब शास्त्रीय कसौटी पर परखे विना मान्य नहीं है ।
धर्म और धार्मिक वृत्ति - मनःस्थिति, स्वभाव प्रायः व्यक्ति का निजी विषय है । यह जीवन का वह आयाम है जहाँ, 'अन्य' को सामान्यतः प्रवेश नहीं है-मन को समझने की साधारण अवस्था उपलब्ध नहीं है, मन का मनोवैज्ञानिक स्वरूप बहुत ही मर्यादित आयामों में समझा जा सकेगा। धर्म की विधायें, धर्म का पालन करने वाले उसके प्रति आस्था - विश्वास और प्रयोग-तुलना करने की मनःस्थिति वाले शास्त्रज्ञ - विद्वान, सन्त अच्छी तरह समझ सकेंगे। कुछ समान अनुभव, कुछ नये, कहीं न कहीं सामान्यीकरण की परस्थिति आवरण बना सकेंगे । इस दशा में प्रयत्न और प्रयोग की मानसिक कायिक तत्परता चाहिए । भारतीय धर्म में धर्म-साधना / अध्यात्म-साधना के अनेक आदि संज्ञाओं द्वारा समझी जाने वाली साधना प्राचीन काल से ही मानी जाती है । भक्ति शास्त्रों / सूत्रों में तो इसका विशेष महत्व मान्य किया गया है ।
आयाम हैं । नाम-साधना, जपध्यान धर्म का एक महत्वपूर्ण अंग / क्रिया
साधना पद्धति में साधक के जीवन और साधना के परिणामों की ओर प्रायः सभी का ध्यान रहता है परन्तु इसका विवेचन / उल्लेख बहुत ही कम मिलता है । जप साधना का जीवन पर क्या किस प्रकार, कब, कैसे, क्यों परिणाम होता है ? उसकी यथार्थता सत्यासत्य की परख आदि के विषय में अनेक विवादास्पद विवेचन प्राचीन शास्त्रों में उल्लखित हैं । इन स्थितियों का विवेचन वर्णन यद्यपि आवश्यक है तथापि यह विवेचन कौन कर सकता है या कौन समझ सकता है यह भी विवाद का विषय है इस विवाद ने भ्रम भ्रान्ति जाल अवश्य खड़ा कर दिया है ।
३६० | सातवां खण्ड : भारतीय संस्कृति में योग
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