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रिल रावती अभिनन्दन गान्ध
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अंग प्रत्यंगों में कम्पन अथवा गति का नियमन यहाँ तक कि रक्त की गति का नियमन भी इसी केन्द्र से होता है।
(३) सुषुम्ना का तृतीय भाग अनाहत चक्र से मूलाधार चक्र तक है । यह भाग जहाँ द्वितीय भाग से मिलता है, उस सन्धि को विष्णुग्रन्थि के नाम से स्मरण किया जाता है। स्थूल तत्त्व अग्नि, जल और पृथिवी तत्त्वों के स्थान अर्थात् इन तत्त्वों से सम्बद्ध चेतना केन्द्र इसी भाग में हैं। सबसे नीचे गुदा के कुछ ऊपर मूलाधार चक्र पृथिवी स्थान है। उससे कुछ ऊपर योनि स्थान से पीछे पेड़ के निकट स्वाधिष्ठान चक्र जल स्थान है तथा उससे भी ऊपर नाभि के निकट मणिपुर चक्र अग्नि का स्थान माना जाता है। गन्ध रस एवं रूप विषय बोध की चेतना का नियमन तथा मल विसर्जन, वीर्य धारण एवं विसर्जन तथा समस्त शरीर के धारण की क्रियाओं का नियमन इन चेतना केन्द्रों के द्वारा ही होता है। यह सुषुम्ना भाग जहाँ ऊपरी अर्थात् द्वितीय भाग से मिलता है, उस सन्धि को विष्णुग्रन्थि कहते हैं, यह ऊपर कह चुके हैं। इसका सबसे निचला भाग ब्रह्मग्रन्थि कहलाता है। यह भाग कफ आदि अवरोधक तत्त्वों से ढका हआ है, अतः सुषुम्ना के चतुर्थ भाग से इसका निर्बाध सम्बन्ध नहीं बन पाता। इसके आवरण मल को दूर करने के लिए अनेक प्रकार की साधनाओं की व्यवस्था योगशास्त्र में दी गयी है। इस मल के पूर्णतया हटने पर ब्रह्म नाड़ी के इस मुख के खुलने को ही ब्रह्म ग्रन्थि भेदन या कुण्डलिनी का प्रथम उद्बोधन कहते हैं।
(४) सुषुम्ना नाड़ी का चतुर्थ भाग कन्द स्थान से मूलाधार चक्र के मध्य का भाग है। ब्रह्म ग्रन्थि द्वारा यह भाग एक ओर मूलाधार चक्र के पास सुषुम्ना के तृतीय भाग से जुड़ता है और दूसरी ओर कन्द से जुड़ा है। शरीर की सभी नाड़ियाँ इसी कन्द स्थान पर आकर मिलती हैं और सुषुम्ना से प्राप्त चेतना के विषयबोधचेतना अथवा क्रियाचेतना को प्राप्त करके सम्पूर्ण शरीर में फैलती हैं और उसे क्रियाशील बनाती हैं । इस कन्द स्थान को विद्युत तकनीक की भाषा में ट्रांसफार्मर कह सकते हैं, ऐसा पावर हाउस कह सकते हैं जहाँ से विद्युत का उत्पादन तो नहीं किन्तु वितरण का कार्य होता है ।
___ क्योंकि शरीर की समस्त ज्ञान अथवा क्रिया का नियमन यहीं से होता है। यहाँ से प्राप्त चेतना से, यहाँ से प्राप्त शक्ति से, शरीर भर में फैली हुई नाड़ियाँ उन अंगों को शक्ति अथवा क्रियाशीलता देती हैं, अतः सुषुम्ना के इस भाग को शक्ति, जीवशक्ति, ईश्वरी आदि नामों से स्मरण किया जाता है। क्योंकि यह भाग ही शरीर के समस्त भाग को चेतना अथवा जीवन के चिह्न देता है, इसलिए इस भाग के स्थूल आधार अंश को स्वयंभू लिङ्ग कहना ठीक ही है।
सुषुम्ना का यह भाग यद्यपि सुषुम्ना के इससे अव्यवहित पूर्वभाग अर्थात् तृतीय भाग से पूरी तरह जुड़ा नहीं है अर्थात् कफ आदि मलों के कारण अर्गलाबद्ध है, अवरुद्ध है, अतः अनन्त चेतना के स्रोत से प्रवाहित होने वाली चेतना शक्ति इस अंश में नहीं आ पाती और इसी कारण अन्य जुड़े हए नाडी तन्त्र में और उसके द्वारा शरीर के समस्त ज्ञान-इन्द्रियों और कर्म-इन्द्रियों को सम्पूर्ण चेतनाशक्ति नहीं मिल पाती । फलत: मनुष्य (मनुष्य आदि सभी प्राणी) न सम्पूर्ण ज्ञान सम्पन्न होता है, और न सम्पूर्ण रूप से क्रियाशक्ति से सम्पन्न । वह अल्पज्ञ और अल्पशक्तिमान रहता है। ठीक वैसे ही जैसे मुख्य पावर हाउस के प्रधान तार से अपने तार के भली प्रकार न जुड़ने के कारण अथवा संयोजक तार (फ्यज वायर) के क्षीण (पतले) होने के कारण हमें थोड़ी विद्युत शक्ति ही मिल पाती है। मुख्य पावर हाउस में जितनी शक्ति है, उतनी शक्ति का उपयोग हम नहीं कर पाते । यदि इन दोनों को सशक्त तार से जोड़ दिया जाता है, तो विद्यत का निर्बाध प्रवाह एक ओर से दूसरी ओर तक मुख्य केन्द्र से गौण केन्द्र तक समान रूप से
प्राणशक्ति कुण्डलिनी एवं चक्र साधना : डॉ० म० म० ब्रह्ममित्र अवस्थी | ३१३
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