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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ ।
मामा
शुद्धि में स्पष्ट बाधा है। चौकापूर्वक भोजन अतिथि–सुयोग्य पात्र को सहज जुटाना वस्तुतः आहार-दान कहलाता है । आज इस प्रकार के भोजन का प्रायः अभाव होता जा रहा है तथापि शुद्ध जैन परिवारों में यह चौका सम्पन्न भोजन-पद्धति आज भी समादृत है। इस प्रकार चौका शब्द वस्तुतः पारिभाषिक कहा जाएगा।
____ इसी प्रकार काटना शब्द जैन परिवारों में गृहीत नहीं किया गया है । शाक अथवा फलों को 'काटने' की अपेक्षा 'बनारना' शब्द को गृहीत किया गया है। बनारना और काटना शब्दों के उच्चारण में ही भावात्मक व्यंजना अहिंसक तथा हिंसक मुखर हो उठती है। काटना में हिंसा के भाव व्यंजित होते हैं। बनारना में सुधारना तथा सुव्यवस्था की भावना मुखरित है । अतः जैन महिलाओं द्वारा इसी शब्द का प्रयोग प्रायः आज भी प्रचलित है । जिन परिवारों में महिलाओं द्वारा शाक बनारना तथा फलों और सब्जियों का बनारना प्रयोग सुनने को मिलता है तो यह सहज में ही ज्ञात हो जाता है कि यह महिला निश्चित ही जैन संस्कृति से दीक्षित रही है। शब्द-प्रयोग से समस्त संस्कृति का परिचय सहज में ही हो जाता है।
कूटना शब्द लीजिए। इसका प्रयोग पर-पदार्थ को कष्टायित करने के लिए होता है । दालें कूटी जाती है । दाल कूटना के स्थान पर जैन महिलाएँ प्रायः 'दालें छरना' प्रयोग में लाती हैं। छरने में दाने से छिलका अलग करने का भाव व्यंजित है । इसी परम्परा में जलाना शब्द लीजिए। 'दिया जलाना' जैन परिवारों में प्रयोग नहीं किया जाता। 'दीप बालना' यहाँ गृहीत है। जलाना शब्द एकदम हिंसक मनोवत्ति का परिचायक है। इसी प्रकार दीप-बुझाना शब्द भी हितकारी भाव व्यक्त नहीं करता इसीलिए यहाँ इस अभिप्राय के लिए 'दीप बढाना' शब्द का प्रयोग किया जाता है।
जैन परिवारों में निबटना शब्द प्रचलित है जिसका अर्थ है निवृत्त होना अर्थात् नैत्यिक क्रियाओं से विशेषकर शुद्धि से सम्बन्धित सभी क्रियाओं में फिर चाहे वह लघुशंका हो अथवा दीर्घशंका इत्यादिक प्रयोजनार्थ निबटना शब्द का ही प्रयोग होता है। खाना शब्द शुभार्थी नहीं कहा जाता अतः यहाँ भोजन करने के लिए खाना के स्थान पर 'जीमना' शब्द प्रचलित है। उपर्युक्त सभी शब्द जैन परम्परा के हैं अर्थात इनका सीधा सम्बन्ध श्रावक परम्परा से रहा है जिसका मूलाधार श्रमण अथवा जैन संस्कृति रही है।
इन शब्दों की भांति हिन्दी में अनेक मुहावरों का भी प्रचलन है जो हिंसा वृत्ति का बोधक है। श्रमण समाज में ऐसे वाक्यांश अथवा मुहावरों का प्रायः प्रचलन वर्जित है। आग फूंकना मुहावरा ही लीजिए। इसमें जो क्रिया है उससे स्पष्ट हिंसा का भाव उभर कर आता है। अर्थ है बहुत झूठ बोलने के लिए। आग लगाना अर्थात् झगड़ा खड़ा करना । कलेजा खाना अर्थात् साहस होना पर शब्दार्थ है मांसाहार की मनोवृत्ति का बोधक । कान काटना अर्थात् अत्याचार करना, खून के चूंट पीना अर्थात् बड़ा कष्ट सहन करना । गला घोंटना अर्थात् अत्याचार करना । घर फूंकना अर्थात् बरबाद करना। छाती जलाना अर्थात् दुःख देना । प्राण खाना अर्थात् बड़ा परेशान करना। मक्खी मारना अर्थात् बेकार बैठना । लहू के चूंट पीना अर्थात् बड़ी आपत्ति सहन करना । लहू चूसना अर्थात् बहुत परेशान करना। सिर काटना अर्थात् बडी तकलीफ देना । जीती मक्खी निगलना अर्थात् जानकर हानि का काम करना। शेर मारना अर्थात बहादुरी का काम करना । आदि अनेक मुहावरे हिन्दी में प्रचलित हैं जिनके उच्चारण मात्र से हिंसात्मक मनोभाव उपजने लगते हैं । श्रमण समाज में ऐसे मुहावरे तथा उनके प्रयोग प्रायः वजित है।।
इस प्रकार उपर्युक्त चर्चा से यह स्पष्ट करना चाहती हूँ कि व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के
जैन नारी-समाज में प्रयुक्त विशिष्ट शब्दावलि और उसमें व्यंजित धार्मिकता : डॉ० अलका प्रचंडिया | २७६
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