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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ सुधरना अथवा सुधारना परमावश्यक होता है । व्यक्ति-सुधार में माँ की भूमिका पहल करती है । बालक अथवा बालिका माँ - नारी के क्रोड़ में पलती है और ज्ञान का पहला पाठ वह वहीं से सीखती है । इस प्रकार नारी संतति की प्रथम शिक्षिका है । अभिव्यक्ति एक शक्ति होती है । इसके मुख्य अवयवों में शब्द और उसके सद्य प्रयोग का उल्लेखनीय स्थान और महत्व है । इसी से भाषा बनती है और वैचारिक विनिमय सक्रिय हुआ करता है । क्रोध, मान, माया, लोभ, वाचालता तथा विकथा पर्यन्त आठ दोषों से रहित शब्द तज्जन्य भाषा का प्रयोग करने की व्यवस्था तन्त्र 'भाषा समिति' कहलाती है। सावधानीपूर्वक समय के अनुकूल और विवेक पूर्वक ऐसी शब्दावलि और भाषा का प्रयोग उपयोगी होता है जिससे भावहिंसा और द्रव्यहिंसा से बचा जा सकता है । भारतीय धर्म और दार्शनिक स्वरूप में वैदिक, बौद्ध के साथ जैन धर्म का योगदान महत्त्वपूर्ण है । जैन धर्म में सिद्धान्त और व्यवहार का एक साथ प्रयोग, अन्य धर्म-व्यवस्था से विरलता रखता है । यहाँ आचारो परमः धर्मः कहा गया है । आचार धर्म में भाषा का सहयोग अतिरिक्त महत्त्व रखता है । जैन परिवारों में नारी ऐसी शब्दावलि का प्रयोग करती है जिनसे हिंसक मनोभावों का दूर-दूर से सम्बन्धित होना नहीं होता । आज मनोभावनाएँ दूषित होती जा रही हैं । इसी को व्यक्त करने के लिए तदनुसार शब्द और शक्तियों की आवश्यकता पड़ा करती है । शब्द शक्ति तीन प्रकार की कही गई है । यथा (२) लक्षणा, (१) अभिधा, (३) व्यंजना | शब्द की वह शक्ति जो बिना किसी दूसरी शक्ति की सहायता के लौकिक अर्थ का बोध करा दे वस्तुतः अभिधा शक्ति कहलाती है । सामान्यतः इसी शब्दशक्ति का प्रयोग परिवार में करना चाहिए क्योंकि इससे आर्जवधर्म का परिपालन करने - कराने में यथेष्ट सहायता प्राप्त होती है । आज समुदाय और समाज में अभिधा शक्ति सम्पन्न शब्दावलि के व्यवहार को गौण स्थान प्राप्त है । लक्षणा द्वारा तथा उससे व्यंजित होने वाले अर्थ अभिप्राय का विनिमय व्यापार श्रेष्ठ माना जाता है । यद्यपि लक्षणा और व्यंजना के प्रयोग में बड़ी सावधानी और चौकसी बरतने की आवश्यकता होती है । अन्यथा अर्थ का अनर्थ होते देर नहीं लगती । शास्त्रीय वातावरण और मनीषियों की मंडली में लक्षणा और व्यंजना सम्पन्न शब्दावलि का प्रयोग श्रेयस्कर होता है । सामान्य घर-गृहस्थी में अभिधा सम्पन्न शब्दावलि का प्रयोग हितकारी होता है। मुहावरा में लक्षणा और व्यंजना दोनों का परिपाक रहता है। मुहावरों का प्रयोग एक वाक्य के समान होता है । यह सामर्थ्य लक्षणा द्वारा ही सम्भव है । जितने मुहावरे होते हैं वे प्रायः व्यंजनाप्रधान होते हैं। मुहावरों का अन्तर्भाव भी शब्द की इन्ही लक्षणा और व्यंजना व्यापक शक्तियों के अन्तर्गत होता है | आचार्य मम्मट ने लक्षणा का लक्षण बताते हुए कहा है कि मुख्येन अमुख्योऽर्थो लक्ष्यते .... यत्सा लक्षणा, अर्थात् जिससे मुख्य अर्थ के द्वारा अमुख्य अर्थ की प्रतीति हो वस्तुतः वही लक्षणा कहलाती है | अभिधा और लक्षणा दोनों ही जब अपना काम करके विरत अथवा चुप हो जाती हैं तब उस समय जिस शक्ति से किसी दूसरे अर्थ की सूचना मिलती है, उसे व्यंजना कहते हैं । जैन, नारी समाज में प्रयुक्त विशिष्ट शब्दावलि और उसमें व्यंजित धार्मिकता : डॉ० अलका प्रचंडिया | २७७ 11
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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