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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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राष्ट्रो त्था न की धुरी : नारी
-डा. श्रीमती निर्मला एम. उपाध्याय
(जोधपुर) किसी राष्ट्र का निर्माण एवं उत्थान उसके प्राण-बल पर निर्भर करता है। भौतिक साधन सम्पन्न होते हुए भी यदि किसी राष्ट्र का प्राण-बल (नागरिक) निस्तेज है तो वह राष्ट्र प्रगति के पथ पर आरोहण नहीं कर सकता। सशक्त शौर्य सम्पन्न, प्रतिभाशाली, प्राणवान नागरिक सभ्यता और संस्कृति के उन्नायक होते हैं। ऐसे नागरिकों का जन्म, शिक्षा, दीक्षा, आचार-व्यवहार इस बात पर निर्भर करता है कि उस समाज का नारी वर्ग कैसा है।
प्राचीन और अर्वाचीन सभी विचारक इस विषय में एकमत हैं कि नारी समाज सभ्यता और संस्कृति का मेरुदण्ड है। त्यागमय भोग, ममता, करुणा, दया, प्रेम आदि की खान नारी के कन्धों पर आदर्श समाज रचना का दायित्व है। माता, पत्नी, कन्या (पुत्री) आदि रूपों में नारी ने समाज तथा राष्ट्र के विकास और उत्थान में सदैव अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है ।
सुकन्या के आदर्श का परिपालन शर्मिष्ठा ने किया। विषपर्वा के राज्य की रक्षा के लिए शुक्राचार्य का उनके राज्य में रहना आवश्यक था। और शुक्राचार्य को प्रसन्न करने के लिए मिष्ठा ने देवयानी का आमरण दासत्व स्वीकार करके कन्या धर्म का पालन किया। मेवाड़ की कृष्णाकुमारी ने स्व-धर्म और कन्या-धर्म दोनों की रक्षा करते हए सहर्ष विषपान किया।
__ भारत के प्राचीन महर्षियों ने मानव जीवन को चार आश्रमों में वर्गीकृत किया और उन आश्रमों में गृहस्थाश्रम को समाज के धारण-पोषण का केन्द्र माना । गृहस्थाश्रम में गृहिणी की महती भूमिका होती है । वह विभिन्न रूपों में पुरुष का साथ देती है। महाभारत में कहा गया है कि पत्नी के २६० | छठा खण्ड : नारी समाज के विकास में जैन साध्वियों का योगदान
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