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साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
स्वामी विवेकानन्द ने एक बार कहा था
Customs of one age of one yug have not the customs of another as yug comes after yug they have to change.
मानव जीवन के कार्य-कलाप में परिवार का महत्त्व है । परिवार में दो महत्वपूर्ण इकाई-पुरुष तथा महिला है।
चीनी संत कन्फ्यूशियस ने कहा था
"परिवार तेज चलते हुए रथ के समान है। परिवार के सभी सदस्य अश्व हैं । एक अश्व की निरीहता भी रथ की गति में बाधक होती है। कर्म ही रथ का सारथी है, अर्थ (धन) ही रथ के पहिए हैं सामाजिक जीवन ही रथ का मार्ग है और सुख, शान्ति और मोक्ष ही रथ का विरामस्थल है। परिवार तेज चलते हुए रथ के समान है।"
तात्पर्य यह है कि यम-यमी संवाद के पूर्व का काल या ऋषभदेव के संदेश के पूर्व का काल लगभग एक बिन्दु जैसा लगता है । उस समय का नारी जीवन भी कोई जीवन था जिसमें नारी केवल पुरुष की भोग-लिप्सा की एक सामग्री मान ली गई थी किन्तु ऋषभदेव ने एक क्रांतिकारी कार्य किया और यहाँ से मानव के सुसंस्कृत होने की प्रक्रिया प्रारम्भ हई। यही कारण है कि जहाँ पुरुष के लिये ऋषभदेव ने ७२ कलाओं की माहिति आवश्यक मानी, वहीं नारी के लिए भी ६४ कलाओं की माहिति जरूरी समझी। उनकी दोनों पुत्री (ब्राह्मी और सुन्दरी) क्रमशः अक्षरविद्या तथा अंकविद्या में निष्णात हुई। दोनों पुत्र भरत तथा बाहुबलि ने जो मानव समाज के सम्मुख आदर्श उपस्थित किया था, वह उनके अत्यन्त सुसंस्कृत जीवन का ज्वलन्त उदाहरण है । संक्षेप में यह कि यही वह बिन्दु है जहाँ से नारी का एक स्वतन्त्र अस्तित्व प्रारम्भ होता है । नारी-जीवन में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान होता है। हम भगवान ऋषभदेव या अन्य तीर्थंकरों के काल की नारी जागरूकता की कथा को एक तरफ रख दें क्योंकि इतिहास की पहुँच वहाँ तक नहीं हुई तब भी वैदिककालीन, उपनिषदकालीन, पार्श्वनाथ, महावीरकालीन (जिनकी ऐतिहासिकता निर्विवाद है) स्थिति पर ही नारी जागरण के प्रश्न को चर्चा का विषय बनायेंगे तो निःसन्देह यह परिणाम निकलता है कि वैदिक काल में नारी का स्थान समाज में महत्त्वपूर्ण था, शिक्षा प्राप्ति का पूरा अधिकार था, साहित्य रचना में भी उनका योगदान था । उदाहरणस्वरूप लोपामुद्रा, घोषा का नाम लिया जा सकता है, जिन्होंने वेदों के कुछ मन्त्रों की रचना की थी। उपनिषदकाल में मैत्रेयी संवाद, गार्गी आदि के प्रश्न (जो राजा जनक की सभा में किये गये थे) अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं जिससे उनके विदुषी होने का संकेत मिलता है । यह भी सत्य है कि जहाँ इस काल में इस प्रकार की विदुषी महिलाओं का जिक्र है वहीं इसी काल में महिलाओं के प्रति अवज्ञा का भाव भी प्रारम्भ हो गया था। शिक्षा के क्षेत्र में उनका अधिकार कम किया जाने लगा, उनके धार्मिक अधिकार पर अंकुश लगा, वेद मन्त्रों का उच्चारण महिलाओं के लिए प्रतिबन्धित कर दिया गया । जैन-बौद्ध युग के प्रारम्भिक काल तक नारी शिक्षा लगभग बन्द सी होती गई, केवल उसको कुशल गृहिणी ही बनना पर्याप्त माना जाने लगा किन्तु जैन परम्परा (भगवान पार्श्वनाथ तथा भगवान महावीर के संघ) में क्रमशः ३८ हजार तथा ३६ हजार भिक्षणियों का संघ था जो क्रमशः सती पुष्पचूला एवं सती चन्दना के नेतृत्व में था। तात्पर्य यह कि जैन परम्परा में महिलाओं के धार्मिक आचरण करने या प्रवजित होने या शास्त्राभ्यास करने आदि पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था, वह भी पुरुष की २५६ / छठा खण्ड : नारी समाज के विकास में जैन साध्वियों का योगदान
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