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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
लेती थीं । अगस्त्य के पुरोहित खेल ऋषि की पत्नी विश्वला इसका उदाहरण है । मुद्गलानी का अनेक गायों को युद्ध में जीतकर लाने का भी प्रसंग प्राप्त होता है। पति-पत्नी यजमान बनकर बराबर यज्ञानुष्ठान करते थे । सायण ने इसका स्पष्ट उल्लेख किया है ।
वैदिक युग के नारी समाज की इस स्थिति की यदि हम यूनान और रोमन समाज से तुलना करें, तो ज्ञात होगा कि हमारी संस्कृति में नारी समाज का कितना अधिक सम्मान था । डेविस ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'ए शोर्ट हिस्ट्री आव विमेन' में इसका विवरण दिया है। हड़प्पा और मोहेंजदाड़ों के प्राप्त अवशेषों से यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि उस युग में भी स्त्रियाँ पुरुषों के समान ही अपना सामाजिक दायित्व व कर्त्तव्य निभाती थीं। डॉ० शकुन्तला राव का ग्रन्थ 'विमेन इन वैदिक एज' इन सबका एक ऐतिहासिक दस्तावेज और ग्रन्थ है । यह सही है कि यत्र-तत्र नारी समाज पर उस युग में भी आक्षेप किये गये थे पर वे नगण्य हैं। जीवन के सभी क्षेत्रों में वे समादृत थीं, उनका योगदान विशिष्ट था । काव्य, कला आदि में भी वे निपुण थीं । इस सन्दर्भ में लुई जेकोलियट् का अभिमत दर्शनीय है । वे लिखते हैं'वेदों में नारी को देवी समझा गया, यही इस भ्रांति का निराकरण कर देता है कि 'प्राचीन भारतीय समाज में वे सम्मानित नहीं थीं । यह एक ऐसी सभ्यता है जो पश्चिमी देशों से अधिक प्राचीन है और जो स्त्री को भी पुरुष के समान अधिकार व स्थान देती है ।' ब्राह्मण और उपनिषद् युग में भी यह परम्परा अक्षुण्ण रही । रुद्र याग, सीता याग आदि कर्म तो नारियाँ ही करती थीं । उस युग में पर्दा प्रथा नितान्त अभाव था । बाल विवाह और सती प्रथा भी नहीं थी । फिर भी जैसा कि डॉ० ए० एल० अल्तेकर ने कहा है कि वैदिक, ब्राह्मण, व उपनिषद काल के पश्चात् नारी की सामाजिक स्थिति उतनी उत्कृष्ट नहीं रही जितनी की अपेक्षित थी । डॉ० अल्तेकर ने इसके कारणों पर गंभीरता से विचार किया है । भारत में ही नहीं, अन्य देशों में भी यही ह्रास हुआ । होमर के युग में स्त्री समाज का जो आदर था, वह पेटिक्स के युग में नहीं रहा ।
रामायण और महाभारत युग के पश्चात् यह ह्रास अधिक तीव्र हो गया । पुनः अल्तेकर के शब्दों में '५०० ईसा पूर्व और ५०० ईसवी का युग इस ओर ध्यातव्य है ।' यही युग सांस्कृतिक दृष्टि से भी विशेष महत्त्व का है। वैदिक युग में जहाँ नारियाँ यज्ञों में प्रत्यक्ष भाग लेती थीं- इस युग में उतना नहीं । इस युग में विवाह की आयु भी घटकर कम हो गई । उपनयन संस्कार समाप्त हो गये - शिक्षा की व्यापकता भी नहीं रही --- पति का आधिपत्य बढ़ गया - नियोग और विधवा विवाह भी समाप्त हो गए। इसी संदर्भ में हम श्रमण संस्कृति में नारी समाज की स्थिति पर भी विचार कर लें। पहले बौद्ध धर्म को लें । बुद्ध के कारण - चन्द्रगुप्त और अशोक के शासनकाल में नारी को समुचित आदर व सम्मान मिला । उनकी शिक्षा पर भी ध्यान दिया गया । थेरी भिक्खुनी इस ओर विशेष महत्त्व रखती है । बुद्ध की विमाता प्रजापति गौतमी स्वयं प्रव्रजित हुई थीं । यद्यपि प्रारम्भ में बुद्ध नारी - दीक्षा के विरुद्ध थे पर आनन्द के आग्रह और अनुरोध पर उन्होंने यह स्वीकार किया । थेर भिक्खुनियों के अध्यात्म गीतों का संकलन जर्मन विद्वान पिशैल ने किया था । राइस डेविड्स ने भी इन गीतों का अनुवाद किया । शुभद्रा, पतचार, सुमना आदि प्रसिद्ध भिक्खुनियाँ हैं । मेकनिकोल के अनुसार इन कवयित्रियों में आश्चर्यजनक समकालीन प्रासंगिकता है - आत्माभिव्यक्ति, व्यक्तित्व की अस्मिता और मुक्ति की आकांक्षा ।
संक्षेप में अब हम जैन धर्म पर विचार कर लें। महावीर इस दृष्टि से अधिक क्रांतिकारी और जागरूक थे । उनके समतावादी, पुरुषार्थवादी और आत्मवादी चिन्तन का सामाजिक प्रभाव भी प्रचुर
भारतीय संस्कृति और परम्परा में नारी : कल्याणमल लोढ़ा | २४१
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