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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
हाथों में । पुष्पला, सुनन्दा, रेवती, सुलसा नाम की अन्य मुख्य साध्वियां थीं। इसी प्रकार उन्होंने नारी को धर्मोपदेश सुनने, धर्मसभाओं में प्रश्न पूछने, अपनी शंकाओं का समाधान करने आदि के अवसर प्रदान किये । जयन्ती नामक राजकुमारी ने भगवान महावीर के समक्ष गंभीर तात्त्विक एवं धार्मिक चर्चा की थी।
भगवान महावीर के समय दास-दासी प्रथा जोरों पर थी। उन्होंने दासीप्रथा, स्त्रियों का व्यापार और उनके क्रय-विक्रय को रोका। इस प्रथा का प्रचलन केवल सुविधा के खातिर नहीं था बल्कि दासियाँ रखना वैभव एवं प्रतिष्ठा का परिचायक था। जब सम्राट श्रेणिक के पुत्र राजकुमार मेघकुमार की सेवा के लिए नाना देशों से दासियों का क्रय-विक्रय हुआ तो महावीर ने खुलकर विरोध किया और धर्मसभाओं में उसके विरुद्ध आवाज बुलन्द की । परिणामस्वरूप महावीर को अनेक उपसर्ग एवं कठोर दंड दिये गये। उन सारे कष्टों को उन्होंने समता भाव से सहन किया।
जब महावीर ने अपने धर्मसंघ की स्थापना की तो उसमें उन्होंने राजघराने की महिलाओं के साथ-साथ गणिकाओं, वेश्याओं को भी पूरे सम्मान के साथ दीक्षा ग्रहण करने का अधिकार दिया। भगवान महावीर के जीवन काल में गणिका के रूप में जिन स्त्रियों का जीवन परुषों द्वारा हेय दृष्टि से देखा गया, भिक्षुणी संघ में दीक्षा लेने के बाद जीवन-व्यवहार में परिवर्तन लाकर, वे ही स्त्रियाँ अपनेअपने द्वारा कृत-कर्मों का प्रायश्चित्त कर वंदनीय बन गयीं।
__ उपेक्षित नारी जाति को सम्मान देने के लिए ही भगवान महावीर ने अपने साधना काल के १२वें वर्ष में एक कठोर अभिग्रह धारण किया। इस अभिग्रह में १३ कठोर संकल्प थे। १. कोई राजकुमारी हो, २. वह बेची गई हो ३. मुण्डित हो, ४. हाथों में हथकड़ी हो, ५. पैरों में बेड़ी हो, ६. तीन दिन की भूखी हो, ७. आँखों में आँसू हों, ८. होठों पर मुस्कान हो, ६. आधा दिन बीतने के बाद १०. एक पैर देहली में एक पैर देहली के बाहर हो, ११. सूप के कोने में, १२. उड़द के बाकुले हों, १३. भौंयरे में खड़ी मुनि को भिक्षा देने की भावना भा रही हो तो आहार लेना; नहीं तो भूखे रहना।
___ उपर्युक्त संकल्पों से यह स्पष्ट होता है कि तत्कालीन समाज में नारी की बड़ी दयनीय स्थिति थी । समाज एवं परिवार द्वारा वह प्रताड़ित की जाती थी। उस प्रताड़ित दुखी नारी जाति को महावीर समाज में पुनः प्रतिष्ठित करना चाहते थे। इसीलिए ऐसा अभिग्रह उन्होंने किया। राजा-रानियों के भिक्षादान को उन्होंने ठुकराया । अन्ततः प्रभु महावीर का यह अभिग्रह फलित हुआ राजकुमारी चन्दन
हाथों। यो वह स्वय राजकुमारी थी, चम्पानगरी के राजा दधिवाहन की पुत्री थी। पर तत्कालीन राजा शतानीक के आक्रमण के कारण दधिवाहन की मृत्यु हो गई । पिता की मृत्यु के वाद माता धारिणी ने शील-रक्षा के लिये अपने प्राण त्यागे। बेटी चन्दना असहाय हो गई। सार्थवाही ने उसे कोशाम्बी के सेठ के हाथ पाँच सौ मोहरों में बेचा । सेठ-पत्नी सेठानी ने राजकुमारी चन्दनबाला पर अनेक अत्याचार किये, जिसके कारण राजकुमारी चन्दना को दासी बनना पड़ा, हथकड़ी-बेड़ी में बँधना पड़ा, सिर मुण्डित कराना पड़ा, भूखों रहना पड़ा। पर महावीर को देखकर इस विषम स्थिति में भी वह मुस्करा उठी । महावीर ने उसके हाथों से उड़द के बाकुले ग्रहण कर जैसे समस्त राजरानियों से भी अधिक सम्मान और गौरव उसके गुण-शील को दिया।
२३८ | छठा खण्ड : नारी समाज के विकास में जैन साध्वियों का योगदान
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