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साध्वारत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ ।
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सभी साधकों से । चाहे वे साधु-साध्वी हों, चाहे गृहस्थ । यही सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र रूप धर्म है और यही शिक्षा है । प्राणि मात्र के स्वरूप को जानकर उनके साथ आत्मौपम्य भाव स्थापित करने वाला ही सही अर्थों में शिक्षित कहलाने का अधिकारी है। विश्वकवि टैगोर की समस्त विश्व के साथ एकता की भावना रूप शिक्षा की व्याख्या भी इसी भाव का बोध कराती है। (४) शिक्षा- सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र है
जैन साहित्य में यद्यपि शिक्षा के लिए 'सिक्खा,' 'विज्जा' आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है । परन्तु सम्यक्ज्ञान का प्रयोग व्यापक रूप में किया गया है। यहाँ ध्यान देने की बात है कि जैन तीर्थंकरों ने ज्ञानमात्र को ज्ञान नहीं मानकर सम्यक्ज्ञान को ज्ञान की संज्ञा दी है। जो जड़-चेतन पदार्थों का सहीसही बोध कर लेता है, वह सम्यकज्ञानी है। रागद्वेषादि विकारों के विजेता परमात्मा द्वारा जड़-चेतन पदार्थों या जीवादि तत्त्वों का सही स्वरूप बताया गया है, उसे जानना यही सच्ची शिक्षा है। उसे जानकर उस पर सही विश्वास होना और तदनुरूप आचरण में प्रवृत्ति करना भी शिक्षा में समाहित है। आचार्य उमास्वाति ने इन तीनों सम्यग्ज्ञानादि के समन्वित स्वरूप को ही मोक्ष मार्ग बताया । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । धर्माराधना हमें मुक्त बनाती है। इसी प्रकार सम्यग्ज्ञानादि की आराधना भी आत्मा को बन्धनों और दुःखों से मुक्ति प्रदान करती है । (५) शिक्षा-जीवन का सर्वांगीण विकास है
जैन धर्म में केवल आत्मिक विकास की बात कही गई हो, ऐसा नहीं है। जैन विचारधारा में आध्यात्मिक विकास के साथ, मानसिक, शारीरिक, सामाजिक एवं बौद्धिक सभी प्रकार के विकास का कथन किया गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में शिक्षा के बाधक कारकों का जहाँ वर्णन किया गया है वहाँ शिक्षार्थी के सर्वांगीण विकास की अवधारणा प्रकट हुई है। इस प्रसंग में बताया गया है कि विद्यार्थी ५ कारणों से शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता । वे पाँच कारण हैं :-अभिमान (थंभा), क्रोध (कोहा), प्रमाद (पमायण), रोग और आलस्य (रोगेण आलस्सेण वा)। पीछे के कारणों की पहले व्याख्या करें तो ज्ञात होगा कि शिक्षा प्राप्ति में स्वस्थ और नीरोग शरीर को भी उतना ही महत्त्व दिया गया है जितना अभिमानरहितता या विनय और अप्रमाद को । मानसिक विकास में अभिमान, क्रोधादि कारण बाधक हैं। प्रमाद बहुत व्यापक शब्द है । जिसमें आत्मिक दोषों का भी समावेश होता है। जब-जब आत्मा अपने स्वरूप को भुलाकर इन्द्रिय विषयों में भान भूल जाता है वह प्रमादी कहलाता है । इस प्रकार इन सभी दोषों के निवारण पर बल देने का तात्पर्य सकारात्मक रूप से शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक तीनों प्रकार से जीवन के सम्पूर्ण और सर्वांगीण विकास पर बल देने से है।
इसके साथ ही जैन धर्म का लक्ष्य ज्ञान-ध्यानादि के द्वारा आत्मा की उच्चतम विकास स्थिति को प्राप्त करना है जिसमें आत्मा की निहित शक्तियों का पूर्ण प्रकटीकरण हो सके । जैन विचारधारा में यही श्रेष्ठ और उत्तम शिक्षा का स्वरूप है जो शिक्षार्थी की सभी प्रकार की शक्तियों का अधिकतम विकास कर सके और उसे श्रेष्ठतम की उपलब्धि करा सके।। (६) सापेक्ष, तर्कसंगत और व्यापक दृष्टिकोण का विकास-शिक्षा है
___ वही शिक्षा सार्थक और सफल मानी जाती है जो शिक्षार्थी को ऐसा व्यक्ति बनावे जिसके दृष्टिकोण में तर्कसंगतता, सापेक्षता के साथ उदारता हो। ऐसा व्यक्ति ही समाज में सुसमायोजित हो सकता है । जैन विचारकों के सामने शिक्षा का यह महत्त्वपूर्ण आधार रहा है । तत्त्वार्थसूत्रकार ने अधिगम २३४ | पंचम खण्ड : सांस्कृतिक सम्पदा
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