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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ ।
मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं उनमें ईसा की लगभग छठी शताब्दी की महावीर की मूर्ति महत्वपूर्ण है। यह मूर्ति भारत कला भवन में है (क्रमांक १६१) । राजघाट से प्राप्त नेमिनाथ की मूर्ति भी लगभग सातवीं शताब्दी की मानी जाती है । यह मुर्ति भी भारत कला भवन में है। अजितनाथ की भी लगभग सातवीं शताब्दी की एक मूर्ति वाराणसी में उपलब्ध हुई है जो वर्तमान में राजकीय संग्रहालय लखनऊ में स्थित है (क्रमांक ४६ – १६६) । इसी प्रकार पार्श्वनाथ की भी लगभग आठवीं शताब्दी की एक मूति जो कि राजघाट से प्राप्त हुई थी राजकीय संग्रहालय लखनऊ में है । इससे यह प्रतिफलित होता है कि ईसा की पांचवीं छठी शताब्दी से लेकर आठवीं शती तक वाराणसी में जैन मंदिर और मूर्तियाँ थीं। इसका तात्पर्य यह भी है कि उस काल में यहाँ जैनों की बस्ती थी।
पुनः नवी, दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दियों के भी जैन पुरातात्विक अवशेष हमें वाराणसी में मिलते हैं । नवीं शताब्दी की विमलनाथ की एक मूर्ति सारनाथ संग्रहालय में उपलब्ध है (क्रमांक २३६) । पुनः राजघाट से ऋषभनाथ की एक दसवीं शताब्दी की मूर्ति तथा ग्यारहवीं शताब्दी की तीर्थकर मति का शिरोभाग उपलब्ध हुआ है। ये मूर्तियां भी भारत कला भवन में उपलब्ध हैं (क्रमांक १७६ तथा १९७)। उपर्युक्त अधिकांश मूर्तियों के कालक्रम का निर्धारण डा० मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी ने अपने लेख "काशी में जैनधर्म और कला" में किया है। हमने उन्हीं के आधार पर यह कालक्रम प्रस्त किया है । पुनः हमें बारहवीं, तेरहवीं, चौदहवीं शताब्दी की वाराणसी के सम्बन्ध में प्रबन्धकोश और विविधतीर्थकल्प से सूचना मिलती है । प्रबन्धकोश में हर्षकविप्रबन्ध में वाराणसी के राजा गोविन्दचन्द्र और उनके पुत्रों विजयचन्द्र आदि के उल्लेख हैं । तेजपाल वस्तुपाल द्वारा वाराणसी तक के विविध जिन मन्दिरों के जीर्णोद्धार के उल्लेख हैं। विविधतीर्थकल्प में वाराणसी के सन्दर्भ में जो कुछ कहा गया है, उसमें अधिकांश तो आगमकालीन कथाएँ ही हैं किन्तु विविधतीर्थकल्प के कर्ता ने इसमें हरिश्चन्द्र की कथा को भी जोड़ दिया है। इस ग्रन्थ से चौदहवीं शताब्दी की वाराणसी के सम्बन्ध में दो-तीन सूचनाएँ मिलती हैं। प्रथम तो यह कि यह एक विद्या नगरी के रूप में विख्यात थी और दूसरे परिबुद्ध जनों (संन्यासियों) एवं ब्राह्मणों से परिपूर्ण थी। वाराणसी के सन्दर्भ में विविधतीर्थकल्पकार ने जो सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण सूचना दी है वह यह कि वाराणसी उस समय चार भागों में विभाजित थी। देव वाराणसी जहाँ विश्वनाथ का मन्दिर था और वहीं जिनचतुर्विंशतिपट्ट की पूजा भी होती थी। दूसरी राजधानी वाराणसी थी जिसमें यवन रहते थे। तीसरी मदन वाराणसी और चौथी विजय वाराणसी थी। इसके साथ ही इन्होंने वाराणसी में पार्श्वनाथ के चैत्य, सारनाथ के धर्मेक्षा नामक स्तूप तथा चन्द्रावती में चन्द्रप्रभ का भी उल्लेख किया है। उस समय वाराणसी में बन्दर इधर-उधर कुदा करते थे, पशू भी घुमा करते थे और धूर्त भी निस्संकोच टहलते रहते थे।49 जिनप्रभ के इस वर्णन से ऐसा लगता है कि उन्होंने वाराणसी का आँखों देखा वर्णन किया है। देव वाराणसी को विश्वनाथ मन्दिर के आस-पास के क्षेत्र से आज भी जोड़ा जा सकता है । राजधानी वाराणसी का सम्बन्ध श्री मोतीचन्द्र ने आदमपुर और जैतपुर के क्षेत्रों से बताया है। श्री मोतीचन्द्र ने मदन वाराणसी को गाजीपर की जमनिया तहसील में स्थित तथा विजय वाराणसी को मिर्जापुर के विजयगढ़ से सम्बन्धित माना है किन्तु मेरी दृष्टि से मदन वाराणसी
और विजय वाराणसी बनारस के ही अंग होने चाहिए। कहीं मदन वाराणसी आज का मदनपुरा तो नहीं था। इसी प्रकार विजय वाराणसी वर्तमान मेलूपुर के आस-पास तो स्थित नहीं थी। विद्वानों से अपेक्षा है कि वे इस सम्बन्ध में अधिक गवेषणा कर सूचना देंगे।
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२२६ | पंचम खण्ड : सांस्कृतिक-सम्पदा
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