________________
साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थमा
आ ज के जीवन में अहिंसा का महत्त्व
+HRSH
SAPP
-डा. हुकमचद जैन (एम० ए० त्रय : (संस्कृत, इतिहास, प्राकृत)
पी-एच० डी० असिस्टेंट प्रोफेसर
जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग
सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर) भगवान् ऋषभदेव ने जिस साधना को अपनाया वह अहिंसा की साधना थी। उसी के परिणाम स्वरूप उन्होंने प्राणातिपातविरमण किया।
अहिंसा का शाब्दिक अर्थ हिंसा न करना अर्थात् "न हिंसा इति अहिंसा।" वास्तव में हिंसा क्या है ? सूत्रकृतांग में लिखा है :-प्रमाद और भोगों में जो आसक्ति नहीं होती है वही अहिंसा है । संक्षेप में राग-द्वेष की प्रवृत्ति का आना हिंसा है। स्थूल रूप से हिंसा दो प्रकार की होती है। एक द्रव्यासा जिसमें क्रिया द्वारा प्राणघात होता है। एक वह भी हिंसा है जो क्रिया द्वारा प्राणाघात नहीं है अपितु किसी प्राणी के प्रति किंचित् बुरे विचार का आना है। इसे भावहिंसा कहते हैं। इसी बात को समणसुत्त में भी कहा गया है :-"प्राणियों की हिंसा करो और (उनकी) हिंसा न भी करो (किन्तु) (हिंसा के) विचार से (ही) (कर्म) बन्ध (होता है) । निश्चय नय के (अनुसार) यह जीवों के (कर्म) बन्ध का संक्षेप
(है)।"1
इसके अलावा जैनेतर ग्रन्थों में भी अहिंसा के भाव दर्शाये गये हैं। बौद्ध के लंकावतार सूत्र में भी लिखा है :-"मद्य, मांस और प्याज नहीं खाना चाहिए।" मनुस्मृति में भी कहा गया है :--
दृष्टि पूतं न्यसेत पादम् ।
1. अज्झवसिएण बंधो, सत्तं मारेज्ज मा य मारेज्ज । एसो बंध समासो, जीवाणं णिच्छय णयस्स ॥
-डा० के० सी० सोगाणी, समणसुत्त चयनिका, 11-58 2. जैन, राजेन्द्र प्रसाद, जैनेतर धर्मों में अहिंसा का स्वर, नामक लेख।
-जिनवाणी 1984 में प्रकाशित 3. जैन, राजेन्द्र प्रसाद, जैनेतर धर्मों में अहिंसा का स्वर (मनुस्मृति का उल्लेख)। २१८ | पंचम खण्ड : सांस्कृतिक सम्पदा
www.jaine