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साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
कड़ी जांच के पश्चात् परीक्षकों द्वारा स्वीकृत हो जाने पर ही पदवी सुलभ नहीं हो जाती । मौखिक परीक्षा के लिये परीक्षकों के समक्ष उपस्थित होकर उनके प्रश्नों के उत्तर दीजिये, अपने विषय का प्रतिपादन करने के लिये भाषण दीजिये और यदि आप उपस्थित विद्वन्मंडली को संतोष प्रदान कर सकें तो ही आप डिग्री पाने के हकदार हो सकते हैं। तत्पश्चात् आपके शोध प्रबन्ध का अमुक भाग उच्च कोटि की पत्रिकाओं में प्रकाशित किया जाता है जिस पर विद्वानों में चर्चा होती है और इसका निर्णय होता है कि आपने अपने शोध प्रबन्ध द्वारा ऐसे कौन से तथ्य की खोज की है जो अब तक अज्ञात था।
इसे सौभाग्य ही समझना चाहिये कि मुझे कील विश्वविद्यालय में १९७० से १९७४ तक जर्मन विद्वानों के साथ रहते हुए शोध कार्य करने का अवसर मिला। इस बीच मैंने उनके कार्य करने की प्रणाली और उनकी सूझ-बूझ का जायजा लेने का प्रयत्न किया। इस तथ्य को समझने की कोशिश की कि क्या कारण है कि वे लोग किसी जैन ग्रन्थ का अध्ययन कर उस पर अपने सुलझे हए मौलिक विचार प्रस्तुत करने में समर्थ होते हैं हम उनके वक्तव्यों को प्रमाण रूप में उद्धृत कर प्रसन्नता का अनुभव करते हैं, जबकि हम उसी ग्रन्थ का बार-बार अध्ययन करते रहने पर भी अपने कोई मौलिक विचार नहीं प्रस्तुत कर पाते - उसकी गहराई में प्रवेश नहीं कर पाते ।
प्रसन्नता हुई यह जानकर कि इसी कील विश्वविद्यालय में हर्मान याकोबी (१८५०-१९३७) और रिशार्ड पिशल (१८४९-१६०८) जैसे जैन धर्म एवं प्राकृत के धुरंधर विद्वानों ने शोध करते हुए अपनी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रचनाओं द्वारा जैन विद्या के क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित किया।
___जर्मनी के विद्वानों में हमें सर्वप्रथम आलब्रेख्त वेबर (१८२५-१६०१) का ऋणी होना चाहिये जिन्होंने सबसे पहले विद्वानों को श्वेताम्बर जैन आगमों का परिचय कराने के साथ हर्मान याकोबी जैसे शिष्यों को तैयार किया, जिन्होंने आगे चलकर जैन विद्या के क्षेत्र में सराहनीय कार्य किया। याकोबी कूल २३ वर्ष के थे जब हस्तलिखित जैन ग्रन्थों की खोज में उन्होंने भारत की यात्रा को और लौटकर 'सेक्रेड बुक्स ऑव द ईस्ट' सीरीज में आचारांग और कल्पसूत्र (१८८४), तथा सूत्रकृतांग और उत्तराध्ययन (१८९५) का अपनी महत्वपूर्ण भूमिका के साथ अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया । इन ग्रन्थों के अनुवाद से विदेशी विद्वानों को जैन धर्म का परिचय प्राप्त करने में बहुत सहायता मिली । याकोबी ने अपने अध्ययन को जैन धर्म तक ही सीमित नहीं रखा, उन्होंने प्राचीन प्राकृत कथा साहित्य पर भी कार्य किया। उन्होंने उत्तराध्ययन पर रचित देवेन्द्र गणि की शिष्यहिता नाम की पाइय टीका के आधार से अपनी 'औसगेवेल्ते एसैलुंगेन इन महाराष्ट्री त्सुर आइन फ्युरूग इन दाप्त श्टूडिउम देष प्राकृत ग्रामाटिक टैक्स वोएरतरबुख' (महाराष्ट्री से चुनी हुई कहानियां-प्राकृत व्याकरण के अध्ययन में प्रवेश करने के लिये) रचना आज से सौ वर्ष पूर्व १८८६ में प्रकाशित की। प्राकृत कथाओं के कुशल सम्पादन के साथ प्राकृत व्याकरण और शब्द कोष भी प्रस्तुत किया गया। इसके अतिरिक्त प्रोफेसर याकोबी का एक और भी बड़ा योगदान रहा है। उन्होंने प्राचीन जैन एवं बौद्ध ग्रन्थों के तुलनात्मक अध्ययन द्वारा जैन धर्म का बौद्ध धर्म से स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध करने के साथ यह भी सिद्ध किया कि श्रमण भगवान महावीर के पूर्व भी जैन धर्म विद्यमान था । अपने वक्तव्य के समर्थन में उन्होंने प्रमाण उपस्थित किये, केवल कथन मात्र से कोई बात सिद्ध नहीं हो जाती । इसी को नई शोध या रिसर्च कहा जाता है जो आत्मपरक न होकर वस्तुपरक होती है और जिसमें मध्यस्थ भाव की मुख्यता रहती है। हरिभद्र सूरि की शब्दावलि में कहा जा सकता है कि
१७६ ! चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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