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(साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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रमाणुआ के
अजीव द्रव्य के पाँच भेद किए गए हैं33-यथा
अजीवो पुण ओ पुग्गल धम्मो अधम्म-आयासं ।
कालो पुग्गल मुत्तो रूवादि गुणों अमुत्ति सेसाहु ॥ अर्थात् पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल इन पाँचों को अजीव द्रव्य जानना चाहिए। इनमें पुद्गल मूर्तिमान है क्योंकि रूपादि गुणों का धारक है । शेष अमूर्त हैं । भेद इस प्रकार हैं
(क) पुद्गल द्रव्य-पुद्गल द्रव्य रूप, रस, गंध तथा स्पर्श सहित होना है। यह मूर्तीक है। शेष चार अमूर्तीक हैं । जिसमें पूरण--एकीभाव और गलन-पृथक्भाव होता है, वह पुद्गल द्रव्य है।
पुद्गल के दो भेद हैं-परमाणु और स्कन्ध । अविभाज्य पुद्गल को परमाणु कहते हैं। जो पौदगलिक पदार्थों का अन्तिम कारण, सूक्ष्म, नित्य, एक रस, एक गन्ध, एक वर्ण और दो स्पर्श युक्त होता है और दृश्यमान कार्यों के द्वारा जिसका अस्तित्व जाना जाता है, उसे परमाणु कहते हैं। . एकीभाव को स्कन्ध कहते हैं । अजघन्य गुण वाले (दो या दो से अधिक गुण वाले) रूखे एवं चिकने परमाणओं के साथ एकीभाव होता है । दो से लेकर अनन्त तक के परमाणु एकीभूत हो जाते हैं, उनका नाम स्कन्ध है जैसे दो परमाणुओं के मिलने से जो स्कन्ध बनता है, उसे द्विप्रदेशी स्कन्ध कहते हैं। इसी प्रकार तीन प्रदेशी, दश प्रदेशी, संख्येय प्रदेशी, असंख्य प्रदेशी और अनंत प्रदेशी स्कन्ध होते हैं ।
(ख) धर्मद्रव्य-यह जीव तथा पुद्गल को चलने में सहायक होता है। गति में सहायक होने वाले द्रव्य को धर्मद्रव्य कहते हैं।
(ग) अधर्मद्रव्य-यह अधर्मद्रव्य जीव तथा पुद्गल को ठहरने में सहायक होता है। स्थिति में सहायक होने वाले द्रव्य को अधर्म कहते हैं।
(घ) आकाश द्रव्य-छहों द्रव्य का निवास स्थान आकाश द्रव्य है। अवगाह देने वाले द्रव्य को आकाश द्रव्य कहते हैं। अवगाह का अर्थ है अवकाश या आश्रय । आकाश अवगाह लक्षण वाला है। लोकाकाश तथा अलोकाकाश के भेद से आकाश दो प्रकार का है। जो आकाश षडद्रव्यात्मक होता है उसे लोकाकाश कहते हैं । जहाँ आकाश के अतिरिक्त कोई द्रव्य नहीं होता उस आकाश को अलोक कहते हैं।
(ङ) काल द्रव्य-जो द्रव्यों के परिणमन होने में सहायक है, वह निश्चयकाल है तथा वर्ष, माह आदि व्यवहार काल है। निर्जरा
निर्गताः जरा-वृद्धत्वं न अपितु कर्माणां जीर्णत्व इति निर्जराः । निर्जरा का अर्थ है जरा रहित । बाँधे हुए कर्मों के प्रदेशों के क्षय होने को निर्जरा कहते हैं। कर्मों की जीर्णता से निवृत्ति का होना निर्जरा कहा गया है—यथा
पुत्वबद्ध कम्म सद्धणं तु णिज्जरा अर्थात् पूर्वबद्ध कर्मों का झड़ना निर्जरा है । आत्म-प्रदेशों के साथ कर्म प्रदेशों का उस आत्मप्रदेशों से झड़ना निर्जरा है36-यथा
बन्धपदेशग्गलणं णिज्जरणं वस्तुतः तपस्या के द्वारा कर्ममल का विच्छेद होने से जो आत्म-उज्ज्वलता होती है, उसे निर्जरा कहते हैं । निर्जरा दो प्रकार से कही गई है7- यथा-- १६६ / चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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