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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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अणुव्रत पाँच प्रकार से कहे गए हैं16-यथा(१) अहिंसा,
(२) सत्य (३) अचौर्य,
(४) ब्रह्मचर्य, (५) अपरिग्रह।
ये पंचाणुव्रत आचार का मूलाधार हैं । अणुव्रत सम्यक्दर्शन के बिना नहीं होते हैं, ऐसा जैनाचार्यों ने कहा है 11 बौद्ध साहित्य में इनका नाम शील है । योगदर्शन में इन्हें यम कहा गया है । अष्टांग योग इन्हीं पर आधृत है ।।
अनुयोग- ‘अनु' उपसर्ग को 'युज्' धातु से 'धन्' प्रत्यय करने पर अनुयोग शब्द निप्पन्न होता है जिसका अर्थ परिच्छेद अथवा प्रकरण है' यथा
अनुयोगोऽधिकारः परिन्छेदः प्रकरणामित्याये कोऽर्थः । जिनवाणी में वणित आगम जिसमें सर्वज्ञ प्रणीत सूक्ष्म दूरवर्ती-भूत व भावी काल के पदार्थों का निश्चयात्मक वर्णन किया गया है, ऐसे आगम के चार भेदों को अनुयोग कहते हैं जिनमें क्रमशः चक्रवर्ती का चरित्र निरूपण, जीव कर्मों, त्रिलोक आदि सप्त तत्त्वों, मुनिधर्म आदि का निरूपण किया गया है ।10
बृहद्रव्यसंग्रह में अनुयोग चार प्रकार से कहे गये हैं- यथा(१) प्रथमानुयोग,
(२) करणानुयोग (३) चरणानुयोग,
(४) द्रव्यानुयोग। प्रथमानुयोग - इसमें तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि महान पुरुषों का चरित्र वर्णित है । करणानुयोग–यहाँ जीव के गुणस्थान, उसके मार्गणादि रूप, कर्मों तथा त्रिलोकादि का निरूपण
हुआ है।
चरणानुयोग-इसमें मुनिधर्म तथा गृहस्थधर्म का वर्णन हुआ है। द्रव्यानुयोग-यहाँ षद्रव्य, सप्ततत्त्व, स्व-पर भेदविज्ञानादि का निरूपण हुआ है।
आरम्भ-आङ+रम्भ के मेल से 'आरम्भ' शब्द निष्पन्न हुआ जिसका अर्थ है चारों ओर से प्राणियों को रंभाने अर्थात् पीड़ा पहुँचाने वाली प्रवृत्ति यथा--
आरम्भः प्राणि पीड़ा हेतुयापारः ।। 'आरम्भ' हिंसा के तार भेद-संकल्पी, आरम्भी, उद्यमी तथा विरोधी-में से एक भेदविशेष है। आरम्भी हिंसा किसी भी गृहस्थ के द्वारा किए गए कार्य सम्पादन में जाने-अनजाने रूप से हुआ करती है-3 यथा
प्राणिप्राण वियोजनं आरम्भौणाम् । हिंसनशील अर्थात् हिंसा करना है स्वभाव जिनका वे हिंस्र कहलाते हैं। उनके ही कार्य हैंस कहलाते हैं । उनको ही आरम्भ कहते हैं-यथा
__हिंसनशीला, हिंस्त्राः, तेषां कर्म हैंस्रमः, आरम्भ इत्युच्यते । व्रती व्रत-साधना के साधकों को इस प्रकार की हिंसा का भी निषेध होता है । १६४ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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