________________
RECER:
साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
आत्मा ही मान्य नहीं, तो पुनर्जन्म और परलोक को मानने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता, अतः नैतिक, सामाजिक और धार्मिक जीवनमूल्य भी थोथे प्रतीत होते हैं । विज्ञान की इस अनास्था से 'ऋण करो और घी पीओ' की प्रवृत्ति बढ़ी। अन्याय, अत्याचार और परराष्ट्र-दमन की नीतियों का बोलबाला हुआ। हिंसा का ताण्डव मचाने वाले विश्व संहारक शस्त्रास्त्रों की दौड़ में सब राष्ट्र 'अहम्अहमिकया' से आगे बढ़ने लगे।
यह जीवन का शाश्वत नियम है कि जब तक मनुष्य के मन में धर्म रहता है, तब तक वह मारने वालों को भी नहीं मारता, अपितु ईसा, मंसूर, सुकरात, महावीर आदि की भाँति क्षमा कर देता है। परन्तु, जब उसके मन में से धर्म निकल जाता है तो औरों की कौन कहे, पिता पुत्र को और पुत्र पिता को मार डालता है । अतः यह निश्चित है कि जगत् की रक्षा का करण धर्म ही है, विज्ञान नहीं।
तीसरा उदाहरण-भगवती सूत्रादि में लेश्याओं के वर्ण, गंध, रस, स्पर्श की शुभाशुभता, लेश्याओं की विद्युतीय शक्ति की कार्यक्षमता का जितना सूक्ष्म एवं विशद वर्णन मिलता है, उतनी गहराई तक विज्ञान अभी तक नहीं पहुँच पाया है, तथापि लेश्याओं के फोटो लेने में वह काफी अंशों तक सफल हो गया है।
इसी प्रकार अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान को वह मस्तिष्क के पिछले हिस्से में स्थित 'पीनियल आई' नाम ग्रंथि का विकास अथवा Sixth Sense का विकास मानने लगा है।
महावीर का 'स्याद्वाद सिद्धान्त' प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन का 'सापेक्षवाद' (Theory of Relalivity) बन गया है।
ये हमने दार्शनिक जगत् के उदाहरण देखे। आचारपक्ष के उदाहरण देखें तो वहाँ भी यही प्रतीत होगा कि महावीर के धर्म के नाम पर नंगे पाँव पैदल चलना, रात्रि-भोजन का त्याग करना, बिना छाना पानी काम में नहीं लेना, मुंह ढककर बोलना आदि जो अनेक छोटे-छोटे नियम हैं, उनकी धार्मिक ढकोसला कहकर या 'ये वैज्ञानिक युग से पहले की बातें हैं; आज के वैज्ञानिक युग में ये फिट नहीं बैठती' इत्यादि कहकर मखौल उड़ाई जाती थी। आज ये ही बातें विज्ञान ने स्वीकार कर ली है। आक्युप्रेशर पद्धति से पाँवों को दबाने का वर्तमान विज्ञान ही महावीर का नंगे पाँव पैदल चलने का विज्ञान है। इसी प्रकार अन्य बातें भी स्वास्थ्य की दृष्टि से हितकर मानी जाने लगी हैं।
इसीप्रकार यह भी हर्ष का विषय है कि आज वैज्ञानिक आत्मा और पुनर्जन्म, लोक और परलोक को मानने लगे हैं। यह विश्वास करने लगे हैं कि आध्यात्मिक जगत् भौतिक जगत् की अपेक्षा अधिक महान् और सशक्त है । सर ए. एस. एडिंग्टन मानते हैं कि चेतना ही प्रमुख आधारभूत वस्तु है । पूराना नास्तिकवाद अब पूरी अरह मिट चुका है और धर्म, चेतना तथा मस्तिष्क के क्षेत्र का विषय बन गया है। इस नई धार्मिक आस्था का टूटना संभव नहीं है।
।
1. मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, पृ० 336 2. वही, पृष्ठ 337-338 3. इस विषय के विशेष जिज्ञासु देखें-'विज्ञान अने धर्म'-मुनि श्री चन्द्रशेखरविजय जी। 4. सर ओलिवर लॉज-मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, अ० 2, पृ० 331 पर उद्धृत । 5. साइम एण्ड रिलिजन-मुनिश्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, अ० 2, पृ० 331 पर उद्धृत ।
१५८ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
www.jained