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● साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
धर्म और विज्ञा न
साध्वी मंजूश्री
धर्म और विज्ञान शब्द सामने आते ही अनेकों प्रश्न उभरते चले जा रहे हैं । धर्म क्या है ? विज्ञान क्या है ? धर्म और विज्ञान परस्पर भिन्न हैं या अभिन्न ? दोनों में से प्राचीन कौन और अर्वाचीन कौन ? संसार को इनमें से किसकी देन अधिक है ? इत्यादि ।
धर्म क्या है ?
'धर्म' यह बड़ा विचित्र और बड़ा पुराना शब्द हो गया है । इसीलिए इसको लाखों-करोड़ों व्याख्याएँ हो चुकी हैं। विज्ञान के युग में जीने वाले लोग धर्म को कुछ पुराने खयालात के लोगों का दकियानूसीपन समझते हैं और धार्मिक व्यक्ति को १६वीं सदी में जीने वाला मानते हैं ।
पर किसी के कुछ भी मानने से दुनिया की बास्तविकता तो बदल जाने वाली नहीं है । रंगीन चश्मा (Goggle) लगा लेने से सूर्य की किरणें बदल नहीं जातीं, हमारी अपनी दृष्टि ही बदलती है । तो क्या हमारा मान्य धर्म और वास्तविक धर्म अलग अलग हैं ? रंगीन नजरिया हटाएंगे, तो मालूम होगा कि 'धर्म वस्तु का स्वभाव हैं' । आत्मा भी एक वस्तु है, इसका स्वभाव है-ज्ञान और दर्शन ( जानना और देखना ), जगत के रंगमंच पर ज्ञाता द्रष्टा बनकर (समभावी बनकर ) रहना । और हमने कुछ तथाकथित धार्मिकों के बाह्य क्रियाकाण्डों को धर्म मानकर वास्तविक धर्म की खिल्ली उड़ाई है । यह भी सच है कि जब-जब सम्प्रदाय ने धर्म का मुखौटा पहना है, तब-तब हिन्दू-मुसलमान, शिया-सुन्नी, शैव-वैष्णव, जैन-बौद्ध, रोमन कैथोलिक - प्रोटेस्टेन्ट, आदि धार्मिकों ने परस्पर खून की नदियाँ बहाई हैं और धर्म का नाम बदनाम हो गया है ।
'बद अच्छा बदनाम बुरा ।'
लेकिन जब हम यह कहते हैं कि पशुओं से अधिक चीज जो मनुष्य के पास है, वह है 'धर्म', तब हम व्यापक, सार्वभौम, विश्वजनीन धर्म की ही बात करते हैं ।
1. 'वत्थु महत्वो धम्मो । समयसार ।
2. आहार-निद्रा-भय-मैथुनञ्च सामान्यमेतत् पशुभिः नराणाम् । धर्मो हि तेपामाधिको विशेषो, धर्मणहीना पशुभिः समाना ॥
१५६ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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