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साध्वीरत्न पुष्यवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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कषाय कौतुक और उससे मुक्ति : साधन और विधान
डा. महेन्द्रसागर प्रचण्डिया वैदिक, बौद्ध और जैन संस्कृतियाँ मिलकर भारतीय संस्कृति के रूप को स्वरूप प्रदान करती हैं। वैदिक और बौद्ध संस्कृतियाँ प्रायः किसी न किसो सत्ता, शक्ति, व्यक्ति द्वारा प्रसूत है। किन्तु जैन संस्कृति का कोई निर्मापक नहीं है। वह मूलतः कृत नहीं है, सर्वथा प्राकृत है। इसीलिए वह आदि है, अनादि है । जैन संस्कृति में जीव के जन्म-मरण का प्रमुख कारण कषाय और उनका कौतुक माना गया है । यहाँ इसी संदर्भ में संक्षिप्त चर्चा करना हमारा मूलाभिप्रेत रहा है।
गुणों के समूह को द्रव्य कहा गया है। जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल नामक षड्द्रव्यों का उल्लेख जैन दर्शन में किया गया है । इन सभी द्रव्यों के समीकरण को संसार कहते हैं । प्राण द्रव्य जब पर्याय धारण करता है तब वह प्राणी कहलाता है। प्राणी का कर्म के साथ सम्बन्ध प्रवाहतः अनादि है । जैन परम्परा में कर्म दो प्रकार का माना गया है यथा(१) द्रव्यकर्म
(२) भावकर्म जड़ तत्त्व जब आत्म तत्त्व के साथ मिलकर कर्म के रूप में परिणत होता है तब उसे द्रव्यकर्म कहा जाता है। राग-द्वेष से अनुप्राणित परिणाम वस्तुतः भावकर्म कहलाते हैं। प्राणी पुराने कर्मों को भोग कर काटता है और नए कर्मों का उपार्जन करता है फलस्वरूप वह भव-बंधन से मुक्त नहीं हो पाता है। जब पुराने कर्मों को नष्ट कर नए कर्मों के उपार्जन का द्वार बंद हो जाता है तब जो आत्मा की अवस्था होती है उसे मुक्ति, मोक्ष अथवा आवागमन के चंक्रमण से छुटकारा कहा गया है।
जैन परम्परा में कर्म उपार्जन के कारण सामान्यतः दो प्रकार से माने गए हैं । यथा(१) योग
(२) कषाय योग क्या है ? यह एक प्रश्न है। शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्ति को योग कहा गया है जबकि कषाय है मानसिक आवेग। योग अर्थात् क्रिया कमोपार्जन का मुख्य कारण है कि कषाययुक्त योग महत्वपूर्ण कर्मबंध का कारण माना गया है। कषाय रहित कर्म निर्बल और अल्पायु होते हैं अर्थात् वे तुरन्त झड़ जाते हैं किन्तु कषाय सम्पृक्त कर्मबंध अटूट और जटिल होते हैं।
प्रत्येक आत्मा में अनन्त चतुष्टय अर्थात् अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्य १२० / चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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