________________
साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
यहाँ उट्ठावणा और उपसंपदा में अर्थभेद है । जैनधर्म में बौद्धधर्म की उपसंपदा के अर्थ में उावणा का प्रयोग हुआ है । उपसंपदा को समाचारी के भेदों में सम्मिलित किया गया है । ज्ञानादि की प्राप्ति के लिए साधक जब किसी अन्य गण-गच्छ के विशिष्ट गुरु के समीप जाता है तब उसकी इस गमन क्रिया को उपसंपदा कहा जाता है । 10 यहाँ उपाध्याय को आचार्य से बड़ा माना गया है ।
जैनाचार में दस प्रकार का कल्प ( आचार) बताया है । उसमें सचेल-अचेल, दोनों परम्पराएँ हैं । दिगम्बर परम्परा में क्षुल्लक दो लंगोटी और दो न्यून प्रमाण काषाय चादर तथा एलक मात्र लंगोटी रखते हैं। वहां मुनि को किसी भी प्रकार के वस्त्र रखने का प्रश्न ही नहीं उठता। पाणिपात्री होने के कारण पात्रों की आवश्यकता नहीं पड़ती । कमण्डलु और पिच्छिका अवश्य साथ रहते हैं । श्वेताम्बर श्रमण मुखवस्त्रिका, रजोहरण और एक दो अथवा तीन चादर रखते हैं । इस विषय में सम्प्रदायगत मतभेद भी है ।
1
बौद्धधर्म में मुलतः चार प्रकार का निश्राय मिलता है " - ( : ) भिक्षा मांगना और पुरुषार्थ करना । संघभोज, उद्दिष्ट भोजन, निमंत्रण, शलाका भोजन, पाक्षिक भोजन आदि भी विहित है । (२) श्मशान आदि में पड़े चिथड़ों से चीवर तैयार करना । क्षौम, कापासिक, कौशेय कम्बल, सन और भंग का वस्त्र भी विधेय है । तीन चीवरों का विधान था - उत्तरासंग अन्तर्वासक एवं संघाटी । उपासकों से ग्रहण करने के लिए चीवरप्रतिग्राहक, चीवरनिधायक, चीवर भाजक जैसे पदों पर भिक्षुओं को नियुक्त किया जाता था । इनको रखने के लिए एक भाण्डागारिक भी होता था। इन चीवरों को काटने, सीने और रंगने का भी विधान है । आसनों के लिए प्रत्यस्तरण, योगियों के लिए कोपीन, वार्षिक साटिका, मुंह पोंछने के लिए अंगोछा एवं थैला आदि रखा जाता था । जूते पहनने का भी विधान है रुग्णावस्था में; पर आरोग्यावस्था में विहार में भी जूता पहनना निषिद्ध था । साधारणतः चमड़े का उपयोग वर्जित था। जैन भिक्षुओं में यह सब निषिद्ध है । नये दीक्षित जैन साधु को रजोहरण, गोच्छक प्रतिग्रह अर्थात् पात्र एवं तीन वस्त्र तथा साध्वी के लिए चार पूरे वस्त्रों को ग्रहण करने का विधान है । साधु के लिए अवग्रहानन्तक अर्थात् गुह्य देश पिधानक रूप कच्छा एवं अवग्रहपट्टक अर्थात् गुह्यदेशाच्छादक रूप पट्टा रखना वर्ज्य है । साध्वी इनका उपयोग कर सकती है । बृहत्कल्प में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को पांच प्रकार के वस्त्रों का उपयोग विहित माना गया है - जांगिक, भांगिक, सानक, पोतक और तिरीटपट्टक । रजोहरण के लिए दिगम्बर साधु मयूर - पंख का उपयोग करते हैं और श्वेताम्बर परंपरा में औणिक, औष्ट्रिक, सानक, वच्चकचिप्पक और मुंजfare धागों को कल्प्य बताया है । निर्दोष वस्त्र की कामना, याचना और ग्रहण अनुमत है पर उनका धोना और रंगना निषिद्ध है । इसी प्रकार सादे अलावु, काष्ठ व मिट्टी के पात्र रखना कल्प्य है पर धातु के पात्र रखना वर्जित है । वृद्ध साधु भाण्ड और मात्रिका भी रख सकता है ।
I
आवश्यकसूत्र में सचेलक साधु को चौदह पदार्थ ग्रहणीय बताये हैं- अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कंबल, पादप्रोंछन, पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, औषधि, भेषज । उत्तराध्ययन में आहार ग्रहण के छः कारण दिये गये हैं - १. क्षुधा शान्ति, २. वैयावृत्त्य, ३. ईर्यापथ, ४. संयम, ५. प्राणप्रत्यय, और ६. धर्मचिन्ता । संखडि ( सामूहिक भोजन), उद्दिष्ट, सचित्त आहार वर्जित है । बौद्धधर्म में ऐसे कोई नियम नहीं है । वहां उद्दिष्ट विहार में स्वयं पकाया भोजन भी विहित है । भोजन के बाद अरण्य
10. उत्तराध्ययन, 26-7
11. मज्झिमनिकाय, I, पृष्ठ 14-15
भ्रमण आचार मीमांसा : डॉ० भागचन्द्र जैन | ११३
www.