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FI साध्वीरित्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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जैन-बौद्ध विनय का तुलनात्मक अध्ययन
श्रम ण आ चार-मीमांसा
डा. भागचन्द्र जैन जैन-बौद्धधर्म श्रमण संस्कृति के अन्यतम अंग हैं । आचार उनको प्रधान दृष्टि है । अहिंसा और समता उनकी मूल आधारशिला है। बौद्धधर्म की तुलना में जैनधर्म निर्विवाद रूप से प्राचीनतर है। त्रिपिटक में प्रतिबिम्बित जैन इतिहास और सिद्धान्त इस तथ्य के स्वयं प्रतिपादक हैं। इतना ही नहीं, बल्कि महात्मा बुद्ध ने जैन दीक्षा लेकर कठोर योग साधना की थी, यह भी मज्झिमनिकाय से प्रमाणित होता है।
तीर्थंकर महावीर और महात्मा बुद्ध देश, काल, क्षेत्र और भाव की दृष्टि से समकालीन रहे हैं । इसलिए उनमें प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से आदान-प्रदान होना स्वाभाविक है। हाँ, यह बात अवश्य है कि जैनधर्म अनेक कारणों से भारत के बाहर अधिक नहीं जा सका जबकि बौद्धधर्म अपने व्यावहारिक दृष्टिकोण के कारण बाहर विदेशों में अधिक फूला-फला। इस विकासात्मकता के फलस्वरूप बौद्धधर्म सिद्धान्त की दृष्टि से भी कहीं का कहीं पहुँच गया। यहाँ तक कि तान्त्रिकता के वीभत्स रूप ने उसे अपनी जन्मभूमि से भी अदृश्य-सा करने में अहं भूमिका अदा की। दूसरी ओर जैनधर्म का न इतना अधिक विकास हुआ है और न वह अधिक फैल ही पाया है।
बौद्धधर्म के विकासात्मक वैविध्य को विनय के साथ सीमित करने के बावजूद प्रस्तुत निबन्ध का विस्तार रोका नहीं जा सकता । इसलिए जैनाचार के साथ तुलना करते समय हमने स्थविरवादी विनय को ही सामने रखा है।
जैनधर्म की आचार-व्यवस्था को समझने के लिए पाँच साधन द्रष्टव्य हैं-(i) आगम, (ii) सूत्र (बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ आदि), (iii) आचार्य की आज्ञा, (iv) धारणा, और (v) जीत (परम्परा)। बौद्धधर्म में इस दृष्टि से चार महापदेशों का उल्लेख मिलता है-(i) बुद्ध, (ii) संघ, (iii) मात्रिकाधर स्थविर; और (iv) बहुश्रुत स्थविर (दीर्घनिकाय, महापरिनिव्वाणसुत्त) । यहाँ अन्तर यह है कि बौद्ध विनय का मूल उद्भावन म. बुद्ध से हुआ है जबकि प्राचीनता की दृष्टि से जैनधर्म ने उस स्थान पर आगम और परम्परा को प्रतिष्ठापित किया है।
1. विशेष देखिए, लेखक का ग्रन्थ (Jainism in Buddhist Literature), नागपुर, 1972
श्रमण आचार को बौद्धधर्म में विनय कहा गया है । स्थविरवादियों का विनय पालि में, सर्वास्तिवादी, आर्यगुप्तक, महीशासक एवं महासांधिकों का चीनी में तथा मूलसर्वास्तिवादियों का चीनी, तिब्बती अनुवाद तथा मूल संस्कृत में है।
११० | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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