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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ ।
कल्याणकारी होगा। निश्चय ही इससे सुखी-समृद्ध तथा से संयुक्त होता है। प्रवचन के अभ्यास से अर्थात् उल्लास का वातावरण उत्पन्न होगा जिसका यत्र-तत्र- परमागम के पढ़ने पर सुमेरु-पर्वत के समान निष्कम्पसर्वत्र अभाव है।
निश्चल, आठ मल रहित, तीन मूढ़ता (लोकमूढ़ता१०. स्वाध्याय
देवमूढ़ता-गुरुमूढ़ता) रहित सम्यग्दर्शन होता है, उसे
देव, मनुष्य, तथा विद्याधरों के मुख प्राप्त होते हैं और सत् शास्त्रों का मर्यादापूर्वक, विधि सहित, अध्ययन,
अष्ट कर्मों के उन्मूलित होने पर प्रवचन के अभ्यास से ही अनुचितन तथा मनन अर्थात् आत्मा का हित/कल्याण
विशद सुख भी प्राप्त होता है ।88 स्वाध्याय तप के द्वारा करने वाला अध्ययन अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को
प्रज्ञा में अतिशय, अध्यवसाय, प्रशस्ति, परम सवेग, तपवृद्धि आराधना करना, स्वाध्याय कहलाता है। आत्म-कल्याण
व अतिचार-शुद्धि आदि भी प्राप्ति होती है। के लिये ज्ञान की आराधना अपेक्षित है । इसलिये तत्त्वज्ञान का पठन-पाठन तथा उसका स्मरण आदि बातें
स्वाध्यायतप में फलेच्छा के निषध का भी जैनागमों में
स्पष्ट उल्लेख है। समस्त आगम का अभ्यास और चिरस्वाध्याय की कोटि में आती हैं 17 जैनागम में इसके
काल तक घोर तपश्चरण करके भी यदि प्राणी सम्पत्ति अनेक प्रकार दर्शाये गये हैं। 78 स्वाध्याय के विषय में
आदि का लाभ तथा प्रतिष्ठा आदि चाहता है, तो निश्चय जैनागमों में यह स्पष्ट किया है कि स्वाध्याय का प्रतिष्ठापन व निष्ठापन विधि से तथा योग्य द्रव्य, क्षेत्र व
ही वह विवेकहीन होकर उस उत्कृष्ट तपरूप वृक्ष के फूल
को ही नष्ट कर देता है जिसके द्वारा सुन्दर व सुस्वादु पके काल में ही किया जाना श्रेयस्कर रहता है, अन्यथा वह
हुये रसीले फल प्राप्त हुआ करते हैं ।88 जो प्राणी केवल अलाभ, कलह, व्याधि तथा वियोग उत्पन्न करता है ।
कर्म-मुक्ति की इच्छा से स्वाध्याय तप करते हैं, जिनमें इस यह परम सत्य है कि स्वाध्याय से बुद्धि में तीक्ष्णता,
लोक के फल की इच्छा बिल्कुल नहीं होती, उन्हें ज्ञान-लाभ निर्मलता आती है, इन्द्रियों और मन को वश में करने की
होता है। साथ ही उन्हें आत्म-शुद्धि का स्थायी सुख भी क्षमता विद्यमान रहती है। वास्तव में स्वाध्याय में
सहज में ही प्राप्त हो जाता है । निश्चय ही लोकेषणा से सम्यक्त्व की प्रधानता रहती है । यह निश्चित सिद्धान्त है।
रहित स्वाध्याय आत्मोपयोगी होता है। कि जो मनुष्य आलसी और प्रमत्त होते हैं, न उनकी प्रज्ञा बढ़ती है और न ही उनका श्रुत (शास्त्र-ज्ञान) ही बढ़ आज समाज, देश-राष्ट्र में ज्ञान-कुन्दता, चरित्र-ह्रास पाता है। जैनाचार्यों ने शास्त्राध्ययन के लिये अविनीत, क्षण-क्षण में उत्तेजना-वासनादि, कलुषित वृत्तियाँ, द्वेष, चटोरा, झगड़ालू और धूर्त लोगों को अयोग्य बताया घृणा, ईर्ष्यादि चारों ओर आच्छादित हैं उसका मूल कारण है।80 इसका मूल कारण है कि वह आगमपाठी जो है सही दिशादर्शन का अभाव । किसी भी समाज का, राष्ट्र चारित्र गुण से हीन है, आगम (शास्त्र) को अनेक बार का मेरुदण्ड उसका युवावर्ग हुआ करता है। आज युवा पढ़ लेने पर भी संसार-समुद्र में डूब जाता है।81 चरित्र समुदाय की मानसिक भूख की खुराक साहित्यिक-स्वाध्याय स्वाध्याय का एक महत्वपूर्ण अंग है। सच्चरित्र साधक के की अपेक्षा सस्ता-बाजारू, अश्लील, तामसी-राजसी वत्तियों लिये शास्त्र का थोड़ा सा अध्ययन भी कल्याणकारी को उद्रेक करने वाला साहित्य है । जबकि सत् साहित्य के होता है ।
सतत् स्वाध्याय से व्यक्ति के ज्ञान-विज्ञान का क्षेत्र बढ़ता/ स्वाध्याय की महिमा का वर्णन करते हुए कहा गया
फैलता है। साथ ही सद्-विचार, सद्संस्कार, अनन्त आनन्द, है कि स्वाध्याय से ज्ञानावरण (ज्ञान को आच्छादित करने
निर्विकारिता, एकाग्रता, चित्त की स्थिरता-निर्मलता संकल्पवाले) कर्म क्षय हो जाते हैं।83 समस्त दुःखों का समापन
स्थिरता का प्रादुर्भाव होता है। निश्चय ही स्वाध्याय एक सहज में ही हो जाता है ।84 निश्चय ही स्वाध्यायी-साधक
एक उत्कृष्ट तप कहा जाएगा।89 अपनी पंच इन्द्रियों का संवर करता है, मन आदि गुप्तियों ११. ध्यान को भी पालने वाला होता है और एकाग्रचित्त हआ विनय मन के चिन्तन का एक ही वस्तु/आलम्बन पर
१८ | चतर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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