________________
-साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
-----H
iiiiiiiiiiiiiiiiiiiii
अथवा एक वर्ष की अवधि तक का होता है 128 आहार- मानसिक-विकारों से दूर रह सकता है। जो अनशन त्याग अवधि की इस निश्चितता और अनिश्चितता के वयक्तिक अधिकारों का हनन अथवा अन्याय शोषण घटित आधार पर अनशन के दो भेद जैनागम में किये गये हैं--- होने पर किया जाता है, उसे जागतिक अनशन कहा जाता एक इत्वरिक और दूसरा यावत्कालिक 27 इत्वरिक में है। इसमें विवशता का प्राधान्य रहता है जबकि आहार-त्याग की सीमा निर्धारित-निश्चित रहती है अर्थात् आध्यात्मिक साधना में अनशन अन्तश्चेतना को जाग्रत भोजन की आकांक्षा सीमा-समाप्ति के बाद बनी रहती है। करता है । आत्म-विकास-साधना का यह पहला चरण यह सावकांक्ष, इत्तिरिय, अवधृतकाल, अद्धानशन, उपवास निश्चय ही वह मजबूत आधारशिला है जिस पर चढ़कर आदि संज्ञाओं में अभिहित है। जबकि यावत्कालिक में साधक निर्बाध रूप से आगे बढ़ता है। सीमावधि नहीं रहती है, इसमें पुन: आहार ग्रहण करने की
२ ऊनोदरी आकांक्षा समाप्त हो जाती है। यह भी यावज्जीव, यावत्क
जैन दर्शन की मान्यतानुसार शरीर मोक्ष-साधना के थिक, यावज्जीवित, अनवधृत काल, सर्वानशन, सकृदभुक्ति आदि नामों में उल्लिखित है । इत्वरिक और यावत्कालिक
लिये बना है, भोगवासमा के लिये नहीं, अस्तु आत्म-विकास अनशन के अनेकानेक प्रभेद जैनागम में स्पष्टतः परिलक्षित
में भूख की अपेक्षा हूक की आवश्यकता रहती है । इस तप हैं।26 जो आहार त्यागने की सीमा और प्रवत्ति को
का अर्थ भी यही है-आहारादि, कषायादि, उपकरणादि दर्शाते हैं।
तथा वस्तुसंग्रहादि की कमी करना/रखना अर्थात् कम
से कम परिग्रह करना अर्थात् तृप्ति करने वाला तथा दर्प आहार त्यागने का मूलोद्दश्य शरीर से उपेक्षा, अपनी
उत्पन्न करने वाला ऐसा जो आहार, उसका मन, वचन, चेतनवृत्तियों को भोजनादि के बन्धनों से मुक्त करना,
कायरूप तीनों योगों से त्याग करना । जिससे क्षुधादि में साम्यरस से च्युत न होना अर्थात् सर्व प्रकार की
आत्मसाक्षात्कार अर्थात् वीतराग-मार्ग में कोई किसी भी इच्छा-आसक्ति के त्यागने से रहा है। शरीर एवं प्राणों
प्रकार का व्यवधान-बाधा उत्पन्न न हो सके। योगपरक के प्रति ममत्व भावों का विसर्जन अर्थात् समस्त तृष्णाओं
जीवन चर्या में साधक की संग्रह/इच्छावृत्ति के संयमन के का समापन तथा अन्तरंग में विषय-विकारों/कर्म-कषायों
आधार पर इस ऊनोदरी33/अवमौदर्य:4/अवमौदरिका35 से विमुक्ति/निर्जरा एवं आत्मबल की वृद्धि हेतु आहार का
तप के अनेक भेद-प्रभेद जैनागमो में वर्णित हैं।36 वास्तव त्याग परमापेक्षित है।30 निश्चय ही आहार-त्याग से
में यह तप संयम साधना/संकल्प-साधना के लिये किया प्राण-मन-इन्द्रिय संयम की सिद्धि होती है जिससे संसारी
जाता है।37 संयम से मन-इन्द्रियजन्य व्यापार अर्थात् प्राणी समस्त पापक्रियाओं से मुक्त होकर, सम्पूर्ण
कषायजन्य विकार (काम-क्रोध-मान-माया-लोभ) शिथिल अहिंसादिव्रत का पालन करता हुआ महाव्रती बनता है ।1
हुआ करते हैं। स्पष्ट है कि मन और इन्द्रियों को संयत आहार-त्याग अर्थात अनशन आध्यात्मिक जीवन में/ किये बिना और लालसाओं को वश में किये बिना न साधना के क्षेत्र में तो उपयोगी है ही, साथ ही अनेकानेक व्यक्ति के जीवन में तुष्टि आ सकती है और न समाज, सांसारिक समस्याओं के निराकरण का एक अमोघ साधन राष्ट्र या विश्व में ही शान्ति स्थापित हो सकती है। भी है । हिंसा, आक्रोश, द्वेष, राग की वह्नि धर-समाज, निश्चय ही यह संयमवृत्ति जीवन जीने की कला का राष्ट्र-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जो आज प्रज्वलित है, उसका मार्ग प्रस्तुत करती है। यह सयम आध्यात्मिक क्षेत्र के मूल कारण है अनशन तप की अनुपस्थिति । यह निश्चित साथ-साथ व्यावहारिक क्षेत्र अर्थात् आर्थिक एवं सामाजिक है कि व्यक्ति का उदर अन्न के अभाव में अथवा अन्न की क्षेत्र में भी परम उपयोगी एवं कल्याणकारी प्रमाणित अतिरेकता में अपराध, संक्लेश, अनैतिक तथा अपवित्रपूर्ण हुआ है। यह निश्चित है कि संयम के अभाव में एक दूसरे जीवन जीने को बाध्य करता है। इस अनशन तप से को हड़पने की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहेगी जिससे भय, व्यक्ति भूख पर तो विजय प्राप्त कर ही लेता है साथ ही अशान्ति, संघर्ष नये-नये रूपों में जन्म लेकर विकसित होते
::FATHER
Mithili
तपःसाधना और आज की जीवन्त समस्याओं के समाधान : राजीव प्रचडिया | ६३
Monuternational
www.ja
.