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(साध्वीरत्नपुष्वती अभिनन्दन ग्रन्थ
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अनुपस्थित हैं उनके द्वारा वाक्यस्थ पदों का अन्वय नहीं हो सकता है । यदि दूसरे विकल्प के आधार पर यह माना जाये कि ये बुद्धि के द्वारा अन्वित होते हैं या बुद्धितत्त्व इनमें अन्वय सम्बन्ध देखता है तो इससे कुमारिल का अभिहितान्वयवाद का सिद्ध न होकर उसका विरोधी सिद्धान्त अन्विताभिधानवाद ही सिद्ध होता है। क्योंकि पदों को परस्पर अन्वित रूप में देखने वाली बुद्धि तो स्वयं ही भाववाक्य रूप है। यद्यपि कुमारिल की ओर से यह कहा जा सकता है कि चाहे वाक्य अपने परस्पर अन्वित पदों से भिन्न नहीं हो क्योंकि वह उन्हीं से निर्मित होता है, किन्तु उसके अर्थ का बोध तो उन अनन्वित पदों के अर्थ के बोध पर ही निर्भर करता है, जो सापेक्ष बुद्धि में परस्पर सम्बन्धित या अन्वित प्रतीत होते हैं। इसके प्रत्युत्तर में जैन दार्शनिक प्रभाचन्द्र का तर्क यह है कि पद अपने धातु, लिंग, विभक्ति, प्रत्यय आदि से भिन्न नहीं है, क्योंकि जब वे कहे जाते हैं तब अपने अवयवों सहित कहे जाते हैं और उनके अर्थ का बोध उनके परस्पर अन्वित अवयवों के बोध से होता है, अर्थात् चाहे वाक्य का हो या पद का हो, हमें जो भी बोध होता है वह अन्वितों का होता है, अनन्वितों का नहीं होता है । यद्यपि अपने अभिहितान्वयवाद के समर्थन हेतु कुमारिल यह तर्क भी दे सकते हैं कि लोक व्यवहार एवं वेदों में वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति के लिए निरंश शब्द/पद का प्रयोग होता है, धातु लिंग विभक्ति या प्रत्यय का पृथक् प्रयोग नहीं होता है धातु, लिंग, विभक्ति, प्रत्यय आदि तो उनकी व्युत्पत्ति समझाने के लिए उनसे पृथक् किये जाते हैं । एक शब्द एक वर्ण के समान अनवयव (निरंश) होता है, उसके अर्थ को समझने के लिए कल्पना के द्वारा उसके अवयवों को एक दूसरे से पृथक् किया जाता है । वह तो अपने में निरंश होने के कारण अनन्वित ही होता है, अनन्वय तो किया जाता है। कुमारिल के इस तर्क के विरुद्ध प्रभाचन्द्र का कहना है कि जिस आधार पर शब्द को अपने अर्थबोध के लिए निरंश अखण्ड इकाई माना जा सकता है उसी आधार पर वाक्य को भी निरंश माना जा सकता है और यह कहा जा सकता है कि वाक्य की संरचना को स्पष्ट करने के लिए शब्दों को (कल्पना में) पृथक किया जाता है। वस्तुतः वाक्य अखण्ड इकाई है अतः उसमें अन्विों का ही अभिधान होता है। लोक व्यवहार में एवं वेदों में वाक्यों का प्रयोग इसलिए किया जाता है कि पदार्थों की प्राप्ति या अप्राप्ति के लिए क्रिया की जा सके । वाक्यार्थ ही क्रिया का प्रेरक होता है, पदार्थ नहीं । अतः वाक्य को एक इकाई मानना होगा और इस रूप में वह अन्वित पदों का ही अभिधान करेगा।
इस प्रकार प्रभाचन्द्र इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जिस प्रकार शब्द, शब्द से धातु, लिंग, प्रत्यय आदि आंशिक रूप से भिन्न और आंशिक रूप से अभिन्न होते हैं उसी प्रकार वाक्य से पद भी आंशिक रूप से भिन्न और आंशिक रूप से अभिन्न होता है। प्रथम तो पद अपने वाक्य के घटक पदों से अन्वित या सम्बद्ध होता है और अन्य वाक्य के घटक पदों से अनन्वित या असम्बद्ध होता है। साथ ही वह अन्वित होकर भी अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है दूसरे द्रव्यवाक्य में शब्द अलग-अलग होते हैं किन्तु भाववाक्य (बुद्धि) में वे परस्पर सम्बन्धित या अन्वित होते हैं।
मेरी दृष्टि में यहां हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि चाहे वाक्यों से पृथक् शब्दों का अपना अर्थ होता हो, किन्तु जब वे वाक्य में प्रयुक्त किये गये हों, तब उनका वाक्य से स्वतन्त्र कोई अर्थ नहीं रह जाता है। उदाहरण के रूप में शतरंज खेलते समय उच्चरित वाक्य यथा-'राजा मर गया' या 'मैं तुम्हारे राजा को मार दूंगा'-में पदों के वाक्य से स्वतन्त्र अपने निजी अर्थों से वाक्यार्थ बोध में कोई सहायता नहीं मिलती है। यहाँ सम्पूर्ण वाक्य का एक विशिष्ट अर्थ होता है जो प्रयुक्त शब्दों/पदों के पृथक्-पृथक् अर्थों पर बिलकुल ही निर्भर नहीं करता है। अतः यह मानना कि वाक्यार्थ के प्रति अनन्वित पदों के अर्थ ही कारणभूत है, न्यायसंगत नहीं है। अन्विताभिधातवाद पूर्वपक्ष
मीमांसा दर्शन के दूसर प्रमुख आचार्य प्रभाकर के मत को अन्विताभिधानवाद कहा गया है। जहां कुमारिल भट्ट अपने अभिहितान्वयवाद में यह मानते हैं कि वाक्यार्थ के बोध में पहले पदार्थ अभिहित होता है और उसके बाद उन पदार्थों के अन्वय से वाक्यार्थ का बोध होता है-वहाँ प्रभाकर अपने अन्विताभिधानवाद में यह मानते हैं कि अन्वित पदार्थों का ही अभिघा शक्ति से बोध होता है । वाक्य में पद परस्पर सम्बन्धित होकर ही वाक्यार्थ का बोध
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४८ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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