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________________ ... . .. .. . ................. ........ . ... .. .. .. . .. . साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ माहात्म्य करि ऐसे उज्ज्वल भाव हैं ताकरि मिथ्यात्व की लार बन्ध होती पाप प्रकृतीनि का अभाव है, कदाचित् किंचित् कोई पाप प्रकृति बंधै है तिनिका अनुभाग मन्द होय है, कछू तीव्र पाप फल का दाता नांही तातें सम्यग्दृष्टि शुभकर्म का ही बांधने वाला है। ऐसे शुभ-अशुभ कर्म के बन्ध का संक्षप करि विधान सर्वज्ञदेव नैं कह्या है सो जाननां । इस विवेचन से स्पष्ट है कि एक ही जीव काल-भेद से कभी पुण्यरूप परिणाम करने के कारण पुण्यात्मा और पापरूप परिणाम करने के कारण पापात्मा कहा जाता है। इससे यह भी स्पष्ट है कि सम्यग्दृष्टि जीव शुभ कर्म को करने वाला तथा शुभ भावों का आराधक होता है। क्योंकि जब सम्यक्त्व सहित होता है तब तीव्र कषायों का समूल उन्मूलन हो जाता है और इसलिए वह पुण्यात्मा कहलाता है । अतएव पुण्य शुभ भाव है । शुभ भाव परम्परित मोक्ष का कारण कहा जाता है। शुभ भाव के बिना जीव शुद्ध दशा में नहीं पहुँच सकता । पुण्य एक ऐसी स्थिति है जिसमें पहुँचकर मनुष्य पाप की प्रवृत्ति की ओर उन्मुख हो सकता है और धर्म की वृत्ति में भी लग सकता है। इस कारण से पुण्य को समझना अत्यन्त आवश्यक है। पुण्य को ठीक से नहीं समझने के कारण आज अनेक पन्थ बन गये हैं। किन्तु वास्तविकता यह है कि लौकिकता में किसी सीमा तक पुण्य उपादेय है, किन्तु परमार्थ में हेय ही है। योगीन्द्रदेव का कथन है पावे णारेउ तिरिउ जिउ पुण्णे अमर विमाणु । मिस्से माणुसगइ लहइ दोवि खये णिव्वाणु ।। अर्थात् पाप से जीव नरक और तिर्यंच गति में जाता है, पुण्य से देव होता है और पुण्य-पाप के मेल से मनुष्य होता है । जब पुण्य-पाप दोनों का क्षय कर देता है तब मोक्ष प्राप्त करता है । पुण्य किसे कहते हैं ? 'पुण्य' शब्द की व्युत्पत्ति है-'पुनातीति पुण्यम्' । जिससे आत्मा में उपशम भाव प्रकट होता है और जो आत्मा की शुद्धि का कारण है उसे पुण्य कहते हैं । आचार्य कुन्दकुन्द जीव के शुभ परिणाम को 'पुण्य' कहते हैं । पुण्य और पाप दोनों ही जीव के साथ बने रहने वाले नित्य परिणामी नहीं हैं। किन्तु संसार की अच्छी या बुरी स्थिति इन दोनों परिणामों के बिना नहीं बन सकती । आचार्य कुन्दकुन्द के इस कथन की ओर तो सभी का ध्यान रहता ही है कि जिस जीव का राग प्रशस्त (शुभ) है, जिसके परिणामों में अनुकम्पा या दया है और जिसका मन मलिन नहीं है उसके पुण्य का आस्रव होता है। उनके ही शब्दों में रागो जस्स पसत्थो अणुकम्पा सहिदो य परिणामो। चित्ते णत्थि कलुस्सं पुण्णं जीवस्स आसवदि ॥ -पंचास्तिकाय, १३५ किन्तु यह कथन किसके लिए है इस पर प्रायः ध्यान नहीं देते। आचार्य कुन्दकुन्द स्वयं कहते हैं मिच्छत्त अण्णाणं पावं पुण्णं चएवि तित्रिहेण । मोणव्वएण जोई जोयत्थो जोयए अप्पा ॥ -मोक्षपाहुड, २८ पं० जयचन्द जी छावड़ा अर्थ करते हुए कहते हैं-योगी ध्यानी मुनि है सो मिथ्यात्व अज्ञान पाप-पुण्ण इनिकू मन, वचन, काय करि छोड़ि मौनव्रत करि ध्यान विर्षे तिष्ठ्या आत्मा • ध्यावै है। २८ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य ...... .
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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