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साध्वीरत्नपुष्वती अभिनन्दन ग्रन्थ ।। सूत्रकृताङ्ग (१. १६. ४) में
"एत्थ वि णिग्गत्थे णो पूयासक्कारलामठी" ऐसा पाठ है, उसकी टीका में कहा गया है कि-"नो पूजा सत्कार लाभार्थी किन्तु निर्जरापेक्षी"
-आगमो० पृ० २६५; दिल्ली पृ० १७७ स्थानाङ्ग में (आगमो० सूत्र ४६६) छठाणा अणत्तवओ अहिताते असुभाते ....."भवंति । तं जहा .....""पूतासक्कारे। छठाणा अत्तवत्तो हिताते......."भवंति । तं० ....."जाव पूतासक्कारे" उसकी टीका में श्री अभयदेव कहते हैं कि-"अनात्मवान् सकषाय इत्यर्थः........। पूजास्तवादिरूपा, तत्पूर्वकः सत्कारो वस्त्राभ्यर्चनम्, पूजायां वा आदरः पूजा-सत्कार इति" (-आगमो० पृ० ३५८; दिल्ली पृ० २३६)
स्थानाङ्ग में छद्मस्थ की पहचान के प्रसंग में कहा गया है कि-'सत्तहि ठाणेहिं छउमत्थं जाणेज्जा तं० पाणे अइवाएत्ता भवति ...... प्रतासकारमणवत्ता भवति" (आगमो० सत्र ५५०) उसकी टीका इस प्रकार है-"पूजा सत्कारं-पुष्पार्चन-वस्त्राद्यर्चनं अनुब हयिता-परेण स्वस्य क्रियमाणस्य तस्य अनुमोदयिता, तद्भावे हर्षकारी इत्यर्थः
-आगमो० पृ० ३८६, दिल्ली पृ० २६० स्थानाङ्ग (सूत्र ७५६) "दसविहे आसंसप्पओगे ...... पूयासंसप्पतोगे ........'' दस प्रकार से मनुष्य प्रशंसा व्यापार करता है उसमें से एक है-पूजाशंसाप्रयोग। उसकी टीका में श्री अभयदेव लिखते हैं कि-"तथा पूजा-पुष्पादिपूजनं मे स्यादिति पूजाशंसाप्रयोगः ।"
-आगमो० पृ० ५१५, दिल्ली पृ० ३४४. इस प्रकार के आशंसा प्रयोग करणीय नहीं है ऐसां श्री अभयदेव का भी अभिप्राय है। इसी सूत्र में सत्कार आशंसा को पृथक् माना है और उसकी टीका में टीकाकार लिखते हैं कि-"सत्कारः प्रवरवस्त्रादिभिः पूजनम्, तन्मे स्यादिति सत्काराशंसा प्रयोग इति ।" इससे यह ज्ञात होता है कि सूत्रकार को पूजा और सत्कार अर्थ इष्ट है, पूजा के द्वारा सत्कार ऐसा अर्थ इष्ट नहीं है।
समवायाङ्ग सूत्र में ३६वें समवाय में उत्तराध्ययन के ३६ अध्ययन गिनाये हैं उसमें ग्यारहवां अध्ययन 'बहुश्रुतपूजा' नामक है। उसमें गा० १५-३३ में बहुश्रुत की अनेक उपमाओं के द्वारा प्रशंसा की गई है। यही उसकी पूजा है-ऐसा मानना चाहिए ।
भगवती सू० ५५६ में "पूया सक्कार थिरिकरणट्ठयाए" ऐसा पाठ है। किन्तु टीका में मात्र उसकी संस्कृत छाया ही दी गई है। पूजा शब्द का अर्थ नहीं दिया है। पूयण-पूयणा
आचारांग (१-१-१) में "इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण-माणण-पूयणाए" इत्यादि पाठ है जिसकी अनेक बार पुनरावृत्ति की गई है। उसकी टीका में पूजन के विषय में श्री शीलांक लिखते हैं कि-"पूजनं पूजा-द्रविण-वस्त्रानपान-सत्कार-प्रणाम सेवा विशेषरूपम् ।"
-आगमो० पृ० २६, दिल्ली पृ० १८ आचारांग (३. ३. ११६) में “दुहओ जीवियस्स परिवंदण-माणण-पूयणाए जंसि एगे पमायंति" पाठ है । उसकी टीका श्री शीलांक इस प्रकार करते हैं--"तथा पूजनार्थमपि प्रवर्तमानाः कमस्रिवरात्मानं भावयन्ति मम हि कृतविद्यस्योपचितद्रव्य प्राग्भारस्य परो दान-मान-सत्कार-प्रणाम-सेवाविशेषः पूजां - करिष्यतीत्यादि पूजनं, तदेवमर्थ कर्मोपचिनोति ।"
--आगमो० पृ० १६९, दिल्ली पृ० ११३ २४ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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