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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
___ इन सिद्धान्तों को ध्यान से देखने पर, यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि इनमें से अधिकांश सिद्धान्त, लोक-व्यवहार पर आधारित हैं । शायद इसीलिए, इनके आचार्यों का 'लोकायत' नाम भी दे दिया गया। यह भी ध्यान देने योग्य है कि इन सारे सिद्धान्तों में पदार्थों/भूतों की ही प्रधानता है। इस लिए, इन सिद्धान्तों को भूतवाद/भौतिकवाद जैसे नामों से भी व्यवहृत किया गया।
चार्वाक, चूंकि भूतों से हटकर अन्य कुछ भी विमर्श नहीं करते। इसलिए इन्होंने आकाश, प्राण और मन की भी, भौतिकता को ही स्वीकार किया है। छान्दोग्योपनिषद् ने 'मन' को 'अन्नमय' और प्राणों को जलीय पदार्थ माना है। और, दोनों की भौतिकता को स्पष्ट करते हुए कहा है-'अन्नमशितं त्रेधा विधीयते। तस्य यः स्थविष्ठो धातुस्तत्पुरीषं भवति । यो मध्यस्तन्मांसं, योऽणिष्ठस्तन्मनः ।। आपः पीतस्त्रेधा विधीयते । तासां यः स्थविष्ठो धातुस्त-मूत्र, यो मध्यस्तल्लोहितं, योऽणिष्ठः स प्राणाः ॥
बौद्धदर्शन में आत्म-विचारणा तथागत बुद्ध को जब तत्त्वज्ञान हुआ था, तभी उन्हें आत्मसाक्षात्कार भी हआ था। किन्तु, जीवन का परम लक्ष्य 'आत्म-साक्षात्कार' ही है, यह जानते हए भी उन्होंने 'आत्मा' के सम्बन्ध में कुछ भी स्पष्ट नहीं कहा। उनकी धारणा थी-वर्तव्यनिष्ठाओं की उपासना से, और तपस्या से अन्तःकरण की शुद्धि होती है। इसी से, स्वतः ही आत्मज्ञान हो जायेगा। इस कारण उन्होंने कर्म सम्बन्धी उपदेश को प्राथमिकता दी । आत्मा, शरीर से भिन्न है या अभिन्न ? आत्मा, मूर्त है या अमूर्त ?- मृत्यु के बाद भी उसका अस्तित्व रहता है या नहीं ? इत्यादि आत्मा सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर देने के बजाय, उन्होंने मौन रहना ही श्रेष्ठ समझा। इसलिए, बौद्धदर्शन में आत्मविषयक चर्चाओं का प्रायः अभाव ही देखा/पाया जाता है।
वच्चगोत्तभिक्षु के उक्त प्रश्नों के सम्बन्ध में धारण किये गये मौन के विषय में, और उन प्रश्नों के उत्तर के विषय में भी, उनके प्रमुख शिष्य आनन्द ने, जब बुद्ध से प्रश्न किया तो उन्होंने कहा'आनन्द ! 'आत्मा है', यदि मैं यह कहता हूँ, तो उन श्रमण-ब्राह्मणों का सिद्धान्त पुष्ट होता है, जो आत्मा की स्थिरता/नित्यता में विश्वास करते हैं । ‘आत्मा नहीं है' यदि यह कहता हूँ, तो उन श्रमण-ब्राह्मणों के सिद्धान्त की पुष्टि होती है, जो आत्मा के शून्यवाद में विश्वास रखते हैं।'
बुद्ध और आनन्द के इस संवाद पर, पाश्चात्य विद्वान् आल्डेनबर्ग का मानना है-'आत्मा के अस्तित्व और अभाव, दोनों से परे रहकर दिये गये उत्तर का यही आशय लिया जायेगा कि 'आत्मा नहीं है।
बावजूद उक्त स्थिति के, बौद्धदर्शन में रूप-वेदना-संज्ञा-संस्कार और विज्ञान नाम के पाँच स्कंधों के संघात/संयोग/मेल रूप में आत्मा की स्वीकृति पायी जाती है । इस स्वीकृति पर अपनी टिप्पणी करते हए रोज डेविड्स ने लिखा है--रूप-वेदना आदि पाँचों स्कंधों के संयोग के विना, जीवात्मा ठ पाता और इनका संयोग, क्रियमाण के अभाव में असम्भव हो जाता है । क्रियमाण भी एक और दूसरे क्रियमाण के बिना सम्भव नहीं होता। और, 'विभाग' स्वीकार किये बिना, यह दूसरा क्रियमाण भी स्वीकार कर पाना सम्भव नहीं है । यह एक ऐसा तिरोभाव है, जो पहिले/बाद के समय में, कभी भी पूरा
7. छान्दोग्योपनिषद्-6/5/1
8. BUDDHA - p. 273 ४ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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