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साहवारत्नपुष्पवता आभनन्दन ग्रन्थ
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वर्षावास-सूची
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श्रमण संस्कृति के श्रमण और श्रमणियाँ घुमक्कड रही हैं। वे भारत के विविध अंचलों में पैदल परिभ्रमण कर जन-जन के अन्तर्मानस में धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक ज्योति जगाती हैं। और जिनका जीवन धर्म और साधना से विमुख बना हुआ है उन व्यक्तियों को वे धर्म का सही स्वरूप बताती हैं। सरिता की सरस धारा के समान प्रतिपल-प्रतिक्षण चलते रहना ही जिनके जीवन मूल मंत्र है एतदर्थ ही श्रमण भगवान महावीर ने कहा-'विहारचर्चा या इसिणं पसत्था' । श्रमण और ऋषियों के लिए विहार करना बहुत प्रशस्त माना गया है । उपनिषद के ऋषियों ने भी यही स्वर बुलन्द किया-'चरैवेति चरैवेति चले चलो बढे चलो। वद्धश्रवा इन्द्र ने तो यह उदघोषणा कि-'चरती चरतो भगः' जो व्यक्ति बैठा रहेगा उसका भाग्य भी बैठा रहेगा और जो चलता रहेगा उसका भाग्य भी गतिशील होगा। एक समय तथागत बुद्ध ने अपने शिष्यों को प्रेरणा देते हुए कहा कि भयानक जंगल में गेंडा अकेला घूमता है, उसे किसी प्रकार का भय नहीं लगता, वैसे ही तुम्हें भी भय रहित होकर घूमना चाहिए। तुम जन-जन के हित के लिए जन-जीवन के सुख के लिए निरन्तर चलते रहो, परिभ्रमण करते रहो और मानव समाज को यह उपदेश दो कि हिंसा, चोरी मत करो, कामासक्त न बनो, मृषाभाषण न करो और मद्यपान न करो। तथा गत बुद्ध के आदेश को शिरोधार्य कर भिक्षुगण लंका, जावा, सुमात्रा, वर्मा, श्याम, चीन, जापान, तिब्बत आदि एशिया के विविध प्रान्त और प्रदेशों में पहुंचा और वहाँ घूमकर श्रमण संस्कृति का प्रचार किया।
जैन श्रमण और श्रमणियाँ 'भारंडपक्खीव चरेऽप्पमत्ते' भारंड पक्षी की तरह अप्रमत्त होकर विहरण करते हैं। विहार करते समय अनेक विघ्न-बाधाएँ भी आती हैं। किन्तु विघ्न और बाधाओं से उनके कदम कभी लड़खड़ाते नहीं और न ठिठकते हैं अपितु शेर की तरह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं । साध्वीरत्न पुष्पवतीजी का विचरण क्षेत्र मुख्य रूप से राजस्थान रहा। राजस्थान में भी उदयपुर में उनके ११ वर्षावास हुए । अजमेर में ४ वर्षावास हुए, जयपुर और जोधपुर में ३-३ वर्षावास हुए। १ वर्षावास मध्य प्रदेश इन्दौर में हुआ एक चातुर्मास महाराष्ट्र में अहमदनगर में हुआ। शेष चातुर्मास उनके राजस्थान में ही हुए। अध्ययन आदि की दृष्टि से उनके कई चातुर्मास श्रद्धेय गुरुदेव महास्थविर श्री तारा चन्दजी म० और उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म० के सान्निध्य में हुए । एक चातुर्मास आचार्यहस्तीमलजो म० के सान्निध्य में भी हुआ।
जहाँ भी आपके वर्षावास होते रहे हैं, वहाँ पर बालक और बालिकाओं में धार्मिक संस्कार हेतु अध्ययन करवाती रहीं और श्री तिलोक रत्न धार्मिक परीक्षा बोर्ड पाथर्डी की परीक्षाएँ भी दिलवाती रहीं। अनेक मेधावी छात्राओं को जैन तत्त्व विद्या को अपने परिज्ञान करवाया। और महिलाओं में विशेष धार्मिक जागृति का प्रयत्न किया और स्थान-स्थान पर धार्मिक पुस्तकालयों की संस्थापनाएँ भी
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