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साध्वीरत्न पुष्पवती आभनन्दन ग्रन्थ
वियोग हुआ, उसके पश्चात् माताजी महाराज का अवलम्बन सदा के लिए छूट गया। और इनका सहारा भी आज समाप्त हो पया। रह-रहकर उनके मानस पटल पर चलचित्र की तरह अतीत की स्मृतियाँ उभर रही थीं।
साध्वीरत्न पुष्पवती जी भेदविज्ञान की ज्ञाता हैं इसलिए उन्होंने अपने आपको शीघ्र ही संभाला किन्तु शरीर कमजोर होने के कारण जो एक बार धड़कन बढ़ गई थी उसे कन्ट्रोल करने में काफी समय लगा।
दिल्ली का यशस्वी वर्षावास सम्पन्न कर गुरुदेव उपाध्याय श्री जी, राजस्थान की राजधानी गुलाबी नगरी जयपुर को पावन करते हुए मदनगंज पधारे। गुरुवर्य के आगमन से भक्तों के मन मयूर नाच उठे और हृदय कमल खिल उठे। भक्त श्रावकों की प्रार्थना को स्वीकार कर लगभग मास कल्प तक उपाध्याय श्री का वहाँ विराजना रहा। महावीर जयन्ती का नव्य-भव्य आयोजन हआ। इस सूनहरे अवसर पर श्री वर्धमान पुष्कर जैन सेवा समिति के नव्य-भव्य भवन का उद्घाटन हुआ। उदयपुर, जयपुर, पाली, यशवन्तगढ, नाथद्वारा आदि स्थानों के विभिन्न संघ उपस्थित हए और अपने-अपने यहाँ वर्षावास की प्रार्थना करने लगे। सन् १९८६ का वर्षावास उपाध्याय श्री जी का पाली में हुआ और साध्वीरत्न पुष्पवतीजी का नाथद्वारा में।।
महासती पुष्पवतीजी अजमेर, ब्यावर होती हुईं नाथद्वारा पधारी । नाथद्वारा एक ऐतिहासिक स्थल है, जहाँ पर जैन समाज के सैकड़ों घर हैं । कृष्ण भक्तों का तो यह प्रसिद्ध गढ़ है। कहा जाता है कि मुस्लिम युग में जब धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता का बोलबाला चरमोत्कर्ष पर पहुंचा तो मंदिर नष्ट किये जाने लगे और धर्मशास्त्रों की होली जलाई जाने लगी । तब मथुरा, वृन्दावन में जो कृष्ण की की प्रतिमा थी, उसे लेकर महन्तजी उदयपुर महाराणा के पास पहुंचे और महाराणा की आज्ञा से वह प्रतिमा वहाँ संस्थापित की गई । वहाँ पर जितने नित्य नये भोग चढ़ाए जाते हैं उतने भोग अन्यन्त्र नहीं चढ़ाए जाते।
वैदिक परम्परा के कुछ चिन्तकों में यह भ्रान्त धारणा है कि जैन परम्परा के अनुयायी श्रीकृष्ण को नहीं मानते। साध्वीरत्न पुष्पवतीजी ने अपने प्रवचनों में उस भ्रान्ति का निरसन करते हुए कहा कि श्रीकृष्ण का वर्णन जैन आगमों में अनेक स्थलों पर हुआ है । वे वासुदेव हैं, श्लाघनीय पुरुष हैं, उन्हें उत्तम पुरुष माना गया है। वे कर्मयोगी हैं, उनका जीवन सूर्य की तरह तेजस्वी और चन्द्र की तरह सौम्य रहा है। यह सत्य है उनके रासलीला, मक्खन चुराने आदि के प्रसंग जैन साहित्य में नहीं हैं किन्तु उनके वे प्रसंग हैं जो उनके व्यक्तित्व व कृतित्व को उजागर करते हैं। वे परम परोपकारी थे यह बात उनके ईंट उठाने के प्रसंग से जानी जा सकती है। वे गुणानुरागी थे यह बात कुत्ते के चमचमाते दाँतों के प्रसंग से समझी जा सकती है। उनके ऐसे बहुत से प्रसंग हैं जो जैन साहित्य में ही मिलते हैं। वे प्रसंग न बौद्ध साहित्य में हैं और न वैदिक परम्परा के साहित्य में हैं। लगभग सौ ग्रन्थ कृष्ण से सम्बन्धित जैन साहित्य में हैं। प्रत्येक युग की साहित्यिक विधाओं में कृष्ण पर लिखा गया है। भाषा की दृष्टि से कृष्ण साहित्य संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश, राजस्थानी, गुजराती, हिन्दी आदि में भी है। अनेक परम कृष्ण भक्तों को जब यह बात ज्ञात हुई तो आपसे विचार-चर्चा के लिए समय-समय पर उपस्थित होते । श्रीमान् श्री गायत्री मानव सेवा संस्थान, चिक लवास संस्थापक वियोगी हरि, श्रीमान् राधे-राधे जैसे आपके प्रति गहरी निष्ठा व्यक्त करने लगे।
प्रस्तुत वर्षावास में आपने 'श्रावक' शब्द पर चार माह तक प्रवचन कर अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा का
एक बूद : जो गंगा बन गई साध्वी प्रियदर्शना | १९७
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