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श्रमणों के अनेक अभिनन्दन ग्रन्थ समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं, पर महासतीजी का अभिनन्दन ग्रन्थ यह सर्वप्रथम है । श्वेताम्बर समाज में इसके पूर्व किसी भी महासती का अभिनन्दन ग्रन्थ नहीं निकला है उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी ने ही नारी जागरण के युग में प्रथम पहलक र अन्य श्रमणीरत्नों के अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया।
प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थ में सात खण्ड हैं। प्राचीन युग में सप्त खण्ड के भव्य भवन बहुत ही शुभ और प्रशस्त माने जाते थे। सप्त अंक साता का प्रतीक है। संघ में शान्ति की आ कमनीय कल्पना को संलक्ष्य में रखकर यह ग्रन्थ सात खण्डों में विभक्त किया गया है।
प्रथम खण्ड में श्रद्धार्चना के साथ आर्शीवचन. वन्दना, अभिनन्दना, संस्मरण, और समर्पण है। द्वितीय खण्ड में सद्गुरुणीजी का व्यक्तित्व दर्शन है। उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी की सजी हुई लेखनी से सद्गुरुणी परम्परा की जीवन छवि चित्ताकर्षक रूप से प्रस्तुत की गई है। सद्गुरुणीजी का जीवन वृत्त उनकी विदुषी शिष्या प्रिय दर्शना जी ने प्रस्तुत किया है।
ततीय खण्ड में सद्गुरुणी जी के साहित्य-परिचय के साथ ही माताजी महाराज प्रतिभामति स्व० प्रभावती जी म० की कृतियों का भी समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।
चतुर्थ खण्ड में जैन दर्शन, जैन इतिहास और जैन साहित्य के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण सामग्री का संकलन है। दर्शन जैसे गुरु गम्भीर विषय को सरल एवं सरस शब्दों में विविध विज्ञों ने चिन्तनपूर्ण निबन्धों में प्रस्तुत किया है । पांचवें खण्ड में सांस्कृतिक मौलिक सामग्री का संकलन हुआ है । छठे खण्ड में नारी समाज के विकास के सम्बन्ध में ऐसी महत्त्वपूर्ण सामग्री संकलित है, जो अत्यन्त उपयोगी है। सातवें खण्ड में ध्यान और योग पर उच्चकोटि की सामग्री देने का प्रयास किया गया है।
मैं सोचता हूँ प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थ में जो सामग्री गई है, वह बहुमूल्य हीरों से भी अधिक मुल्यवान है, यह सामग्री ज्ञानवर्द्धक, उपयोगी और जीवन मूल्यों का उद्घाटन करने के लिए अत्यन्त उपयोगी है। यह ग्रन्थ रत्न पुस्तकालयों की शोभा के लिए ही नहीं, किन्तु जीवन को सजाने के लिए है। संवारने के लिए है।
इस विशालकाय अभिनन्दन ग्रन्थ का सम्पादन करना, बच्चों का खेल नहीं था। परमवन्दनीय परमश्रद्धेय महामहिम आचार्य सम्राट श्री आनन्द ऋषिजी महाराज जो श्रमण संघ के नायक हैं, जिनकी छत्र छाया में श्रमण संघ फल रहा है, फूल रहा है, वह ऐसा विराट और मधुर व्यक्तित्त्व है, जिसके स्नेह सागर में अवगाहन कर कौन अपने आपको धन्य अनुभव नहीं करता। उनका आर्शीवाद भी प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादन में संजीवनी शक्ति का कार्य करता रहा है। परमश्रद्धय सद्गुरुवर्य पूज्य उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी महाराज का हार्दिक आशीर्वाद प्राप्त नहीं होता तो मैं इस भगीरथ कार्य को कदापि नहीं कर सकता था। उनका हादिक आशीर्वाद मेरा संबल रहा, और श्री देवेन्द्र मुनिजी जो वर्तमान में श्रमण संघ के उपाचार्य पद पर आसीन हैं, उनके स्नेहस्निग्ध श्रम का ही मूर्त रूप है। साथ ही पंडित श्री रमेश मुनि जी म० श्री राजेन्द्र मुनि जी M. A. महासती श्री चन्द्रावती जी, बहिन महासती श्री प्रिय दर्शनाजी, महासती श्री किरणप्रभा जी और महासती श्री रत्नज्योतिजी का आभार मानना भी मैं अपना कर्त्तव्य समझता हूँ। उनका मधुर सहयोग मुझे समय-समय पर प्राप्त हुआ है। स्नेह मूर्तिमीषी डा० महेन्द्र सागर प्रचण्डियाजी ने मुझे अनेक महत्त्वपूर्ण मौलिक लेख प्राप्त कराने में हार्दिक सहयोग दिया है । जिसे ज्ञापित करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं । डॉ. ए. डी. बत्तरा, डॉ. नरेन्द्र भानावत और मधुकान्ता, एम. दोशी आदि का स्नेहपूर्ण मार्गदर्शन ग्रन्थ के लिए बहुत उपयोगी रहा है।
सम्पादकीय
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