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साध्वारनपुष्पवता आभनन्दन ग्रन्थ ARE
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कर दिया। वे भो आनो अन्तर् व्यथा को रोक नहीं पा रहे थे। उनके मुंह से बार-बार ये शब्द निकल | रहे थे-विधाता ने यह क्या कर दिया ?
पिता को मृत्यु सुदरि के सामने हो हुई थो। उनको मृत्यु ने सुन्दर के मन में कई गहन प्रश्न खड़े कर दिए। वह मन हो मत सोचो लगी-मृत्यु क्या है ? मृत्यु क्यों होती है ? मृत्यु से किस प्रकार जोता जा सकता है ? वह अपने मन में इन निगूढ़तम प्रश्नों का उतर खोजने लगी। यदि वह नचिकेता होतो तो यमराज के पास जाकर मृत्यु के इन अज्ञात रहस्यों का पर्दा उठाकर पूछती। मौत को वह समझना चाहता था। उसके सामने आता माँ का, भाई को और पिता को मृत्यु हुई थो। उसका अन्तर्द्वन्द्व पराकाष्ठा पर पहुँच रहा था। पर समाधान नहीं मिल रहा था।
अर्जुनलालजो भन्सालो जा सुन्दरि के नानाजो थे तथा भंवरलालजो सा. को धर्म-पत्नो जो बड़ो दादा था। वे सुन्दरि को अत्यधिक प्यार करते थे। वे सुन्दरि को यह अनुभव करा देना चाहते थे कि पिता का जो वात्सल्य तुझे मिल रहा था उससे भी अधिक हम तुझे प्यार दे रहे हैं । पर क्रूर काल ने उनको भी जब छोन लिया तः सुन्दरकुमारो यह सोचने लगी कि जब इनका जीवन पुष्प देखतेदेखते मुरझा गया तो मैं कौन से बाग को मूलो हूँ। मेरा भाई बालक था। मेरी माता और पिता दोनों नौजवान थे और नानाजो और दादीजी ये बड़ी उम्र के थे। मौत किसको, किस समय वरण करे, यह कुछ भी निश्चित नहीं है । वह कब आ जाएगी, कुछ भी पता नहीं है। उसी भावना से उसके मन में वैराग्य भावना के बीज वपन हो रहे थे।
सत्संग ने आर्तध्यान को धर्मध्यान में बदला हम यह पूर्व बता चुके हैं कि जीवनसिंहजी के स्वर्गवास से पिता कन्हैयालालजी को बहुत बड़ा आघात लगा। वे एकान्त, शान्त क्षणों में सोचने लगे कि मेरी पुत्रवधु की उम्र अठारह वर्ष की है। पोती की उम्र सात वर्ष की है और पोता तो अभी कुछ ही दिनों का हुआ है। यदि पुत्रवधु सदा आर्तध्यान में रहेगी तो इसका स्वास्थ्य भी बिगड़ेगा और उसका असर पोते पर भी होगा। इसको आर्तध्यान से मुक्त करना है तो वह उपाय है-धर्म-ध्यान । सद्गुरुणीजी के चरणों में बैठेगी तो इसकी चिन्ता दूर होगो और चिन्तन प्रबुद्ध होगा।
दो वर्ष का समय व्यतीत हो गया। एक दिन श्री कन्हैयालालजी ने तीजकुंवर को कहा-बेटी चल मैं तुझे ऐसे स्थान पर ले जा रहा हूँ जो स्थान कल्पवृक्ष की भाँति शोक मुक्त एवं शान्तिप्रद है । जैसे कल्पवृक्ष मनोकामना पूर्ण करता है और चिन्ताएँ नष्ट करता है वैसे ही सद्गुरुणीजी का सान्निध्य हमारे जीवन के लिए वरदान रूप होगा।
तीजकंवर, सुन्दरि और धन्नालाल तीनों को लेकर कन्हैयालालजी उदयपुर में स्थिरवास 'वराजिता साध्वीरत्न तपोमूर्ति महासती मदनकुंवरजी तथा साध्वीरत्न महाश्रमणी सोहनकुंवरजी के पास ले गए। और कहा-'आप इन्हें ज्ञान, ध्यान सिखाइये, जिससे कि इनके जीवन में नई रोशनी प्राप्त हो । ये आर्तध्यान और रौद्रध्यान से मुक्त होकर धर्म-ध्यान करें। इसीलिए मैं आपके चरणों में इनको लाया हूँ। जब भी समय मिलेगा । तब आपके चरणारविन्दों में आयेंगी।
मानव-मन की पारखी महासतियों के पास माताजी तीजकुंवर के साथ सुन्दरी भी जाने लगी। महासतीजी यह अच्छी तरह से जानती थी कि बालकों को खेलने-कूदने में, खाने-पीने में जितना आनन्द
१७४/ द्वितीय खण्ड : व्यक्तित्व दर्शन
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