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साध्वारत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
मिठास थो, मधुरता थी, सारल्य और विनय का भाव था। उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति में जो मिठास थो, वह मात्र रंजनदायिनी न होकर, रक्षण प्रदायिनी भी थी। वह किसी भी प्राणी को कष्ट देना पसन्द नहीं करती थी। उसमें सूर्य को तरह तेजस्विता थी और फूलों की तरह कोमलता और मधुरता थी। वही मधुरता और प्रखरता आगे चलकर जनकल्याण के लिए वरदान के रूप में प्रकट हुई।
बालिका जब डेढ़ साल को हुई तब प्रेमदेवी ने दूसरी कन्या को जन्म दिया। जिसका नाम सुशीला रखा गया। किन्तु कुछ दिन के पश्चात् ही सुशीला ने सदा के लिए आँखें मूंद ली थीं। सुशीला के देहान्त से प्रेमदेवी को भारी आघात लगा। उस आघात से उनका मानसिक सन्तुलन अस्त-व्यस्त हो गया और वे आधि से सन्त्रस्त हो गई। उस समय जीवनसिंहजी अपने अन्य कार्यों को गौण कर पत्नी की सेवा तन, मन से करने लगे। अनेक चिकित्सकों को दिखलाया गया। उपचार किये गये। पर कोई लाभ नहीं हुआ । यहाँ तक कि मानसिक रुग्णता से बेभान बनकर प्रेमदेवी शौच से सारे मकान को गन्दा कर देती। पर जीवनसिंहजी बिना किसी संकोच के सारा मकान अपने हाथ से साफ कर देते। वे कहते -पति का कर्तव्य है कि वह बिना संकोच पत्नी की सेवा करे। पति और पत्नी का सम्बन्ध एक-दूसरे के प्रति समर्पण का है । एक-दूसरे के सहयोग का रिश्ता है। पति यदि रुग्ण होता है तो पत्नी का कर्तव्य है कि उसको सुश्रूषा करे । सभी उस नौजवान की सेवा व कर्तव्य भावना देखकर विस्मित थे।
जीवनसिंहजी को पत्नी-वियोग जीवनसिंहजी के द्वारा प्रबल प्रयास करने पर भी प्रेमदेवी बच नहीं सकी। तीन वर्ष की जब सुन्दरि हुई तब उस अबाध बालिका के सिर पर से मातृ-वात्सल्य की सुखद छत्रछाया उठ गई। दुनिया की लीला अजब है, विधि का विधान गजब है। क्रूर काल के सामने किसी का भी जोर नहीं चलता। सुन्दरि के कोमल मानस पर भारी आघात लगा। वह यह समझ न पाई कि प्यारी माँ को सभी लोग उठाकर कहाँ ले गए ? वह पुनः कब आयेगी?
बाल सुलभ सरलता से वह अपने पूज्य पिता से पूछती--माँ कहाँ गई है ? उसे लोग उठाकर क्यों ले गए ? वह कब तक लौटकर आएगी? बालिका की बातें सुनकर जीवनसिंहजी की आँखें भर आतीं और जब बालिका देखती पिता की आंखों में आंसू हैं तो वह पिता के चरणों में गिरकर कहती कि मेरे अपराध को क्षमा करें। मैं अब कभी भी
अब वह बालिका सदा पिता के पास रहने लगी। बाल-सुलभ चंचलता उसमें थी। वह पिता के प्यार से अभिभूत थी। पिता उससे बहुत ही प्यार करते थे। उसे नित नए वस्त्र पहनाते, अभूषण पहनाते तथा बढ़िया मिठाइयाँ खिलाते, फल और मेवा खिलाते । पिताजी पान खाते थे। उनका अनुसरण कर वह भी पान खाने लगी। वह जो भी हठ पकड़ लेती थी. जब तक पूरी नहीं होती तब तक पिता को चैन से नहीं बैठने देती थी। कई बार उसने अपने पिता को रात्रि में हलवाई के यहां से ताजा मिठाई लाने के लिए बाध्य किया। बालक की मानसिकता बड़ी विचित्र होती है, कुशल अभिभावक उसे समझ सकता है और उसे योग्य दिशा में मोड़ सकता है ।
प्रेमदेवी के निधन के पश्चात् जीवनसिंहजी के चेहरे पर पहले की तरह मुस्कान नहीं थी। उसके चिर-वियोग से उनके कोमल मानस को भारी आघात लगा था। परिजनों ने जब उनके मुरझाए हए चेहरे को देखा तो उन्हें समझाया कि अभी आपकी उम्र बहुत ही छोटी है। सिर्फ तेवीस वर्ष की वय है । अतः दूसरा विवाह कर लें। पहले इन्कार करते रहे। किन्तु पूज्य पिता श्री के अत्यधिक आग्रह पर उन्हें झुकना पड़ा।
एक बूद, जो गंगा वन गई : साध्वी प्रियदर्शना | १७१
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