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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ)
जेता वार्य रत्लाम सूरे एक महान क्रान्तिकारो आवार्य । श्रमग भगवान महावो र के समय मानव जाति ऊंच-नोव के भेदां में
। वर्ग व्यवस्था में अहंकार का विष इस प्रकार घुल-मिल गया था कि गुद्रों को धर्म करने के अधिकार से हो वंचित रहना पड़ा। उस समय भगवान महावीर ने संदेश दिया -'मनुष्य जाति एक है । इसमें किसी प्रकार का भेद नहीं है । जो भी धर्म को ग्रहण करेगा वही महान् बन जायेगा।' भगवान महावार के तोर्य में चारों वर्गों को स्थान मिला।
___ समय ने करवट बदलो। रूढ़िवाद, वर्णवाद और वर्गभेद की भावना पुनः द्रुत गति से पनपने लगी। मानव समाज विभिन्न खण्डों में विभक्त हो गया। जैनधर्म, कुछ वैश्य और कुछ राजवंशीय लोगों तक सीमित हो गया।
आचार्य रत्नप्रभसूरि ने धार्मिक जड़ता को नष्ट करने के लिए एक साहसिक और ऐतिहासिक कदम उठाया। अलग-अलग वर्गों में विभक्त मानवों को व्यवहार और विचार शुद्धि कर एक बनाया। इस व्यवहार शुद्धि में चारों हो वर्ण के व्यक्ति निष्ठा के साथ सम्मिलित हुए ।
मांसाहार और मद्यपान का प्रचार अत्यधिक बढ़ा हुआ था। जिन लोगों ने मांसाहार और मद्यपान का परित्याग किया उन्हें नमस्कार महामन्त्र के उच्चारण के साथ जैनत्व की दीक्षा का संस्कार दिया। ओसियां में जितने भी लोग रहते थे चाहे वे क्षत्रिय हों, चाहे ब्राह्मण, चाहे वैश्य हों या शद्र-सभी में भेदभाव भूलकर धार्मिक बन्धुत्व की भावना सम्पन्न की गई। सभी में एक ही धर्मनिष्ठा और एक ही प्रभु के प्रति भक्ति रखने की प्रेरणा दी गई। यह धर्म क्रान्ति बड़ी अद्भुत और ऐतिहासिक थी। इस धर्म-क्रान्ति में सम्मिलित सभी वर्ण शुद्धाचारी होकर अपने आपको 'ओसवाल' कहने में गौरव की अनुभूति करने लगे। जैनाचार्य की उदात्त भावना ने उन्हें परस्पर मित्र बना दिया और दूध-मिश्री की तरह एकीकृत कर दिया।
ओसवाल संघ में जो विभिन्न वर्गों का मधुर समन्वय हुआ है वह चींटियों की तरह नहीं है। चींटियाँ विभिन्न अन्न कणों को एक स्थान पर एकत्रित करती हैं। पर वह समन्वय, सही समन्वय नहीं । क्योंकि सभी दाने अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं। वे पृथक्-पृथक रूप में पहचाने जाते हैं। पर ओसवाल वंश में जो समन्वय हुआ वह मधुमक्खियों को प्रक्रिया की तरह हुआ। मधुमक्खियाँ रंग-बिरंगे फूलों से रस-पान करती हैं और उस रस को ऐसा रूप प्रदान करती है कि उसमें किसी फूल विशेष के रस की प्रमूखता नहीं होती।
ओसवाल वंश अनेक वर्ण और वर्ग के संमिश्रण से बना हुआ मधु छत्र है जो ओसियाँ में निष्पन्न हुआ।
ओसवाल जाति के निर्माण में किस वर्ण का कितना योगदान रहा, यह कहना बहुत ही कठिन है। इस जाति के रक्त में क्षत्रियों का तेज है, ओज है । तो ब्राह्मणां की बुद्धि और विलक्षणता है । वैश्य की चतुरता और व्यवहार शुद्धि है । और शूद्र की सेवा भावना और सहिष्णुता है। यह है ओसवाल जाति की गरिमा और महिमा । इस प्रकार ओसवाल जाति शौर्य-चातुर्य-सेवा और सदाचार का एक राजहंस माना जाता है। आज ओसवाल कहलाने वाले अपने लक्ष्य से भटक रहे हैं। उन्हें अपनी गरिमा को जीवित रखना है।
भीषण अकाल से उत्पीड़ित होकर ओसवाल ओसियाँ नगरी को छोड़कर भारत के विविध अंचलों में जा बसे । वे वहाँ पर ओसवाल के नाम से ही जाने-पहचाने जाते हैं। ओसवाल वंश में
१६८ । द्वितीय खण्ड : व्यक्तित्व दर्शन