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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
अतीत गौरवपूर्ण रहा है । इस भूमि के कण-कण में शौर्य, पराक्रम, बलिदान, औदार्य, त्याग तथा साहित्य साधना की अगणित कहानियाँ लिपटी हुई हैं ।
सुप्रसिद्ध इतिहासवेत्ता, कर्नल टॉड ने सर्वतन्त्र स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर आत्मोत्सर्ग करने वाले पराक्रमी योद्धाओं का तथा सत्य और शील पर कुर्बान होने वाली सन्नारियों का इतिहास लिपिबद्ध किया है । जितना लिपिबद्ध किया है उससे कई गुना इतिहास कलम की नोंक से उतारा नहीं गया है । ससीम शब्दावली असीम इतिहास को लिखने में कब समर्थ हुई है ? विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने राजस्थान के चारण साहित्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की है । किन्तु हजारों जैन साधकों ने राजस्थान की धरती में रहकर विराट् साहित्य का सृजन किया । जो साहित्य भारतीय - साहित्य की अनमोल निधि है, उसका वे उल्लेख तक नहीं कर सके ।
राजस्थान वीरभूमि होने के साथ ही साथ धर्मभूमि भी है । शक्ति और भक्ति का मधुर सामंजस्य इस माटी में रहा है । यहाँ के वीर भक्ति भावना से उत्प्रेरित होकर अपनी अद्भुत शौर्य वृत्ति का परिचय देते हैं । तो यहां के भक्त पुरुषार्थ, साधना और सामर्थ्य के बल पर धर्म को तेजस्विता प्रदान करते हैं । यहां के उदार मानववाद के धरातल पर वैदिक, वैष्णव, शैव, शाक्त, जैन, इस्लाम आदि सभी धर्म-सम्प्रदाय अपनी-अपनी रंगत संगत के साथ सौहार्दपूर्ण वातावरण में फलते-फूलते रहे हैं। यहां की प्राकृतिक सौन्दर्य सुषमा और जलवायु ने जीवन के प्रति सचेतनता के साथ निस्पृहता और अनुरक्ति, कठोरता और कोमलता, संयमशीलता और सरसता का पाठ पढ़ाया और वही जीवन दृष्टि यहां के धर्म, साहित्य, संगीत और कला में प्रतिबिम्बित हुई है ।
मेवाड़ का गरिमा मंडित अतीत
मेवाड़ भारत के पश्चिम में और राजस्थान के दक्षिण में अवस्थित है । वहाँ की धरती के कणकण में बापा हमीर, कुंभा, सांगा, प्रताप, राजसिंह जैसे शासकों का शौर्य और मीरा की भक्ति मुखरमुखर होकर मेवाड़ के गौरव में चार चाँद लगा रही है ।
मेवाड़ यह नाम कब और कैसे हुआ, इस विषय में इतिहास के पृष्ठ मौन हैं। प्राचीन ग्रन्थों में शिवि और प्राग्वाट नाम उपलब्ध होते हैं । प्राचीन शिलालेखों, प्राचीन सिक्कों में यह नाम उट्टकित है । ये नाम क परिवर्तित हुए यह ऐतिहासिक विज्ञों के लिए शोध का विषय है ।
भाषाशास्त्रीय दृष्टि से यदि हम चिन्तन करें तो मेवाड़ शब्द संस्कृत के मेदपाट शब्द से निर्मित है । जिसका अर्थ मेदों की भूमि है । विज्ञों का यह मन्तव्य है कि इस क्षेत्र पर मेद, मेव या मेर जाति का आधिपत्य होने से इसका नाम मेदपाट हो गया। एक दूसरा मन्तव्य है मेवाड़ शब्द की निष्पत्ति मेदिनीपाट ( पृथ्वी का सिंहासन) शब्द से हुई है । इस सम्बन्ध में और भी कुछ धारणाएँ हैं, उन धारणाओं में मतैक्य नहीं है तथापि यह निश्चित है मेवाड़ या मेदपाट ये दोनों शब्द विक्रम संवत की ११वीं शताब्दी में प्रच लित थे ।
प्राकृत ग्रन्थ धम्म परिक्खा जो विक्रम संवत् १०४४ में निर्मित है और हठूडी के शिलालेख जो विक्रम संवत् १०५३ में उट्ट कित हैं उनमें क्रमशः मेवाड़ और मेदपाट ये नाम मिलते हैं । इससे यह स्पष्ट है कि आज से लगभग १००० पूर्व मेवाड़ का अस्तित्व उजागर हो गया था ।
मेवाड़ भारत की प्राचीन सभ्यता का एक सुप्रसिद्ध केन्द्र है । पुरातत्त्वविदों का मन्तव्य है कि मेवाड़ की 'गम्भीरी' और 'बड़ेच' सरिताओं के मुहानों पर मानव सभ्यता के विकास की जानकारी प्राप्त १६६ | द्वितीय खण्ड : व्यक्तित्व दर्शन
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