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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
आपकी चार शिष्याएँ हुईं - १. महासती श्रीमतीजी २. महासती प्रेमकुंवरजी ३. महासती चन्द्रकुवरजी और ४. महासती बालब्रह्मचारिणी हर्षप्रभाजी |
जीवन की सान्ध्य वेला तक धर्म की अखण्ड ज्योति जगाती हुई राजस्थान, मध्य भारत में आपका विचरण रहा । आपने अपने त्याग - वैराग्य से छलछलाते हुए प्रवचनों से व्याख्यान वाचस्पति गणेश मुनि जी “शास्त्री ", रमेश मुनि जी " शास्त्री ", राजेन्द्र मुनि जी " शास्त्री" और दिनेश मुनि जी "विशारद" को त्याग मार्ग की ओर उत्प्रेरित किया । दि० २७ जनवरी १९८२ को आपका 'खैरोदा' ग्राम में समाधिपूर्वक संथारे के साथ स्वर्गवास हुआ ।
आपका भौतिक शरीर भले ही वर्तमान में विद्यमान नहीं है पर आप यशः शरीर से आज भी for हैं और भविष्य में सदा जीवित रहेंगी । काल की क्रूर छाया भी उनके तेजस्वी व्यक्तित्व एवं कृतित्व को धूमिल नहीं बना सकती ।
इस प्रकार प्रस्तुत परम्परा वर्तमान में चल रही है । इस परम्परा में अनेक परम विदुषी
साध्वियाँ हैं ।
मारवाड़ के उस प्रान्त में जहाँ स्त्री शिक्षा का पूर्ण अभाव था, वहाँ पर उन साध्वियों ने त्याग-तत्र के साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी प्रगति को । क्योंकि कई साध्वियों के हाथों की लिखी हुई प्रतियाँ प्राप्त होती हैं, जो उनकी शिक्षा योग्यता का श्रेष्ठ उदाहरण कहा जा सकता है । पर परिताप है कि उनके सम्बन्ध में प्रयास करने पर भी मुझे व्यवस्थित सामग्री प्राप्त नहीं हो सकी । इसलिए अनुक्रम में उनके सम्बन्ध में लिखना बहुत ही कठिन है । जितनी भी सामग्री प्राप्त हो सकी है, उसी के आधार से मैं यहाँ लिख रहा हूँ । यदि राजस्थान के अमर जैन ज्ञान भण्डार में व्यवस्थित सामग्री मिल गयी तो बाद में इस सम्बन्ध में परिष्कार भी किया जा सकेगा ।
फत्तूजी की शिष्या - परम्परा में महासती आनन्दकुंवरजी एक तेजस्वी साध्वी थीं । उनकी बाईस शिष्याएं थीं जिनमें से कुछ साध्वियों के नाम प्राप्त हो सके हैं । महासती आनन्दकुंवरजी ने कब दीक्षा ली यह निश्चित संवतु नहीं मिल सका। उनका स्वर्गवास पं० १९८१ पौष शुक्ला १२ को जोधपुर में संथारे के साथ हुआ । महासती आनन्दकुंवरजी के पास ही पं० नारायणचन्दजी महाराज की मातेश्वरी राजाजी ने और नारायणदासजी महाराज के शिष्य सुलतानमलजी की मातेश्वरी नेनूजी ने दीक्षा ग्रहण की थी । महासती राजाजी का स्वर्गवास वि० सं० १९७८ वैशाख सुदी पूनम को जोधपुर में हुआ था ।
महासती राजाजी की एक शिष्या रूपांजी हुई थी जिन्हें थोकड़े साहित्य का अच्छा अभ्यास था । महासती आनन्दकुंवरजी की एक शिष्या महासती परतापाजी हुईं जिनका वि सं० १९८३ मृगशिर वदी ११ को स्वर्गवास हुआ था । महासती फूलकुंवरजी भी महासती आनन्दकुंवरजी की शिष्या थीं और उनकी सुशिष्या महासती झमकूजी थीं जिन्होंने अपनी पुत्री महासती कस्तूरीजी के साथ दीक्षा ग्रहण की थी । दोनों का जोधपुर में स्वर्गवास हुआ। महासती कस्तूरीजी की एक शिष्या गवराजी थीं, वे बहुत ही तपस्विनी थीं । उन्होंने अपने जीवन में पन्द्रह मासखमण किये थे, और भी अनेक छोटी-मोटी तपस्याएँ की थीं । उनका स्वर्गवास भी जोधपुर में हुआ ।
महासती आनन्दकुंवरजी की बभूताजी, पन्नाजी, धापूजी, और किसनाजी अनेक शिष्याएँ थीं । महासती किसनाजी की हरकुजी शिष्या हुईं। उनकी समदाजी शिष्या हुई और उनकी शिष्या पानाजी हैं ।
जैन शासन प्रभाविका अमर साधिकाएं एवं सद्गुरुणी परम्परा : उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि | १६१
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