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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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कहने की नहीं, करने की साधना है। और वह कला वही व्यक्ति बता सकता है, जिसने स्वयं ध्यान को साधना सिद्ध की है । देखिए उन्हीं के शब्दों में---
"इस मन को स्थिर करना चाहो तो, ध्यान साधना करना जी" स्थिर आसन हो, स्थिर वचन और तन चंचल वातावरण नहीं। स्थिर योग-साधना करते तो फिर, स्थिर होते क्यों करण नहीं
स्थिर ध्यान-साधना हो जाने से, मरने से क्या डरना जी ॥१॥ उनके बनाये हुए शताधिक भजन हैं और एक-दो खण्ड-काव्य भी हैं। उनके द्वारा लिखित कहानी संग्रह 'जीवन की चमकती प्रभा' के नाम से प्रकाशित हुआ है और तीन-चार कहानी-संग्रह की पुस्तकें अप्रकाशित हैं । 'आगम के अनमोल मोती-तीन भाग' भी प्रकाशन के पथ पर है।
आपका जन्म वि० सं० १९७० (सन् १९१३) में गोगुन्दा ग्राम में हुआ था। आपके पूज्य पिता श्री का नाम सेठ हीरालाल जी तथा मातेश्वरी का नाम प्यारीबाई था। आपका जन्म नाम तीजकुंवर था। आपके अन्तर्मानस में वैराग्य-भावना प्रारम्भ से हो थो। किन्तु पारिवारिक जनों के आग्रह से आपका पाणिग्रहण उदयपुर निवासी श्री कन्हैयालाल जो बरडिया के सुपुत्र जोवनसिंहजो बरडिया के साथ सन् १६२८ में सम्पन्न हुआ।
श्री जीवनसिंह जी बरड़िया उदयपुर के एक लब्धप्रतिष्ठित कपड़े के व्यापारी थे। आपका बहुत ही लघुवय यानी चौदह वर्ष की उम्र में प्रथम पाणिग्रहण एडवोकेट श्रीमान् अर्जुनलाल जी भंसाली की सुपुत्री प्रेमकुमारी के साथ सम्पन्न हुआ। उनसे एक पुत्री हुई। उनका नाम सुन्दरकुमारी रखा गया। कुछ वर्षों के पश्चात् प्रेमकुमारी का देहावसान हो जाने से चौबीस वर्ष की उम्र में आपका द्वितीय विवाह हुआ। आपके दो पुत्र हुए-एक का नाम बसन्तकुमार और दूसरे का नाम धन्नालाल रखा गया। बसन्तकुमार डेढ़ माह के बाद ही संसार से चल बसा । और २७ वर्ष की उम्र में संथारे के साथ जीवनसिंह जी भी
हो गये। पूत्र और पति के स्वर्गस्थ होने पर वराग्यभावना जो प्रारम्भ में अन्तनिस में दबी हई थी, वह साध्वीरत्न महासती श्री सोहनकुवरजी के पावन उपदेश को सुनकर उड़ समय पति का स्वर्गवास हुआ, उस समय द्वितीय पुत्र धन्नालाल सिर्फ ११ दिन का ही था। अतः महासतीजी ने कर्त्तव्य-बोध कराते हुए हुए कहा-अभी तुम्हारी पुत्री सुन्दरकुमारी सिर्फ ७ वर्ष की है और बालक धन्नालाल कुछ ही दिन का है । पहले उनका लालन-पालन करो, सम्भव है, ये भी जिनशासन में दीक्षित हो जायें । सद्गुरुणी जी की प्ररणा से आप गृहस्थाश्रम में रहीं। पर पूर्ण रूप से सांसारिक भावना से उपरत ! आपने वि० सं० १६६८ (सन् १९४१) में आषाढ़ सुदी तृतीया को आहती दीक्षा ग्रहण की । वैराग्य
आगम व दर्शन का इतना गहरा ज्ञान था कि दीक्षा लेते ही सद्गुरुणी जी को आज्ञ से सिंघाड़ापति होकर स्वतन्त्र वर्षावास किया । आपकी प्रवचन कला इतनी प्रभावोत्पादक थी कि श्रोता मन्त्र-मुग्ध रह जाते । आपने दीक्षा लेने के पूर्व अपनी पुत्री सुन्दरकुमारी और अपने पुत्र धन्नालाल की उत्कृष्ट वैराग्य भावना देखकर दीक्षा की अनुमति प्रदान की थी। पुत्री ने वि० सं० १९६४ (सन् १९३७) में माघ शुक्ला १३ को सद्गुरुणीजी श्री सोहन कुवर जी म० के पास दीक्षा ग्रहण की थी और संस्कृत, प्राकृत, न्याय और काव्य का उच्चतम अध्ययन किया। क्वीन्स कॉलेज बनारस की व्याकरण, काव्य, मध्यमा, साहित्यरत्न (प्रयाग) तथा न्याय-काव्यतीर्थ आदि परीक्षायें समुत्तीर्ण की। और धन्नालाल ने उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म० के पास दीक्षा ग्रहण की और श्रमण जीवन का नाम 'देवेन्द्र मुनि' रखा गया।
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१६० | द्वितीय खण्ड : व्यक्तित्व दर्शन
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