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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
मिट जायगा अतः उस श्रावक की प्रार्थना करने पर मौन रहे, अब क्षमा प्रार्थी हैं । महासतीजी ने कहासंकट तो मिट गया पर हमें कितनी परेशानी हुई ?
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इस प्रकार महासतीजी के जीवन में अनेकों घटनाएँ घटीं किन्तु उनके ब्रह्मचर्य के तेज व जपसाधना के कारण सभी उपद्रव शांत रहे ।
महासती श्री लाभकुंवरजी की अनेक शिष्याओं में एक शिष्या महासती छोटे आनन्दकुंवरजी थीं । आपकी जन्मस्थली उदयपुर राज्य के कमोल ग्राम में थी । ये बहुत ही मधुरभाषिणी थीं । उनके जीवन में त्याग की प्रधानता थी । इसलिए उनके प्रवचनों का असर जनता के अन्तर्मानस पर सीधा होता था । आप जहाँ भी पधारीं वहां आपके प्रवचनों से जनता मंत्रमुग्ध होती रही । आपकी अनेक शिष्यायें हुई । उनमें महासती मोहनकुंवरजी महाराज और लहरकुंवरजी महाराज इन दो शिष्याओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है ।
महासती मोहनकुंवरजी मृत्यु का आभास हुआ
महासती मोहनकुंवर जी का जन्म उदयपुर राज्य के भूताला ग्राम में हुआ । उनका गृहस्थाश्रम का नाम मोहनबाई था । जाति से आप ब्राह्मण थीं । नौ वर्ष की लघुवय में आपका पाणिग्रहण हो गया । वह पति के साथ एक बार तीर्थयात्रा के लिए गुजरात आयीं । भडौंच के सन्निकट नरमदा में स्नान कर रही थीं कि नदी में पानी का अचानक तीव्र प्रवाह आ गया जिससे अनेक व्यक्ति जो किनारे पर स्नान कर रहे थे पानी में बह गये । मोहनबाई का पति भी बह गया जिससे ये विधवा हो गई । उस समय महासती आनन्दकुंवरजी विहार करती हुईं भूताले पहुंचीं । उनके उपदेश से प्रभावित हुई । मन में वैराग्य - भावना लहराने लगी । किन्तु उनके चाचा मोतीलाल ने अनेक प्रयास किये उनका वैराग्य रंग फीका पड़ जाय । अनेक बार उन्हें थाने के अन्दर कोठरी में बन्द कर दिया, पर वे सभी परीक्षाओं में समुत्तीर्ण हुई । अन्त में मोतीलालजी उन्हें महाराणा फतहसिंह के पास ले गये । महाराणाजी ने भी उनकी परीक्षा ली। किन्तु उनकी दृढ़ वराग्य-भावना देखकर दीक्षा की अनुमति प्रदान कर दी जिससे सोलह वर्ष की उम्र में आर्हती दीक्षा ग्रहण की। खूब मन लगाकर अध्ययन किया। आपकी दीक्षा के सोलह वर्ष के पश्चात् आपका वर्षावास अपनी सद्गुरुगी के साथ उदयपुर में था । आश्विन शुक्ला पूर्णिमा की रात्रि में वे सोयी हुई थीं । उन्होंने देखा एक दिव्य रूप सामने खड़ा है और वह आवाज दे रहा है कि जाग रही हैं या सो रही हैं ? तत्क्षण वे उठकर बैठ गई और पूछा- आप कौन हैं ? और क्यों आये हैं ? देव ने कहा -- यह न पूछो, देखो तुम्हारा अन्तिम समय आ चुका है । कार्तिक सुदी प्रतिपदा के दिन नौ बजे तुम अपनी नश्वर देह का परित्याग कर दोगी, अतः संथारा आदि कर अपने जीवन का उद्धार कर सकती हो । यह कहकर देव अन्तर्धान हो गया । महासती आनन्दकुंवरजी जो सन्निकट ही सोयी हुई थीं, उन्होंने सुना और पूछा किससे बात कर रही हो ? उन्होंने महासतीजी से निवेदन किया कि मेरा अन्तिम समय आ चुका है, इसलिए मुझे संथारा करा दें । महासतीजी ने कहा- अभी तेरी बत्तीस वर्ष की उम्र है, शरीर में किसी भी प्रकार की व्याधि नहीं है, अतः मैं संथारा नहीं करा सकती । उस समय उदयपुर में आचार्य श्रीलालजी महाराज का भी वर्षावास था, उन्होंने भी अपने शिष्यों को भेजकर महासती से संथारा न कराने का आग्रह किया और महाराणा फतहसिंह जी को ज्ञात हुआ तो उन्होंने भी पुछवाया कि असमय में संथारा क्यों कर रही हो ? तब महासती ने कहा मैं स्वेच्छा से संथारा कर रही हूँ, मैं मेवाड़ की
१५० | द्वितीय खण्ड : व्यक्तित्व दर्शन
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