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साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
वस्त्रों का परित्याग किया । अन्त में एक जैन श्रमणी उधर आयी। श्रमणी के धैर्य की कठोर परीक्षा लेने के लिए हाथी ज्यों ही उसकी ओर बढ़ने लगा त्यों ही उसने क्रमशः अपने धर्मोपकरण उधर फेंक दिये, उसके पश्चात् साध्वी हाथी के इधर-उधर घूमने लगी। किन्तु उसने अपना वस्त्र-त्याग नहीं किया। जब जनसमूह ने यह दृश्य देखा तो उनका आक्रोश उभर आया । मुरुण्डराज ने भी संकेत कर हाथी को हस्तिशाला में भिजवाया और उसी साध्वी के पास अपनी बहन को प्रवजित कराया। साहस, सहनशीलता, शान्ति और साधना की प्रतिमूर्ति उस साध्वी का तथा मुरुण्ड राजकुमारी इन दोनों का नाम क्या था, यह ज्ञात नहीं है।
श्रुताध्ययन की अपूर्व प्रेरणा : साध्वी माता रुद्रसोमा वीरनिर्वाण की छठी शती में आर्यरक्षित की माता साध्वी रुद्रसोमा का नाम भी भुलाया नहीं जा सकता जिसने अपने प्यारे पुत्र को जो गम्भीर अध्ययन कर लौटा था, उसे पूर्वो का अध्ययन करने हेतु आचार्य तोसलीपूत्र के पास प्रेषित किया और सार्द्ध नौ पूर्व का आर्यरक्षित के पास अध्ययन किया। रुद्रसोमा की प्रेरणा से ही राजपुरोहित सोमदेव तथा उसके परिवार के अनेकों व्यक्तियों ने आहती दीक्षा स्वीकार की और स्वयं उसने भी। उसका यशस्वी जीवन इतिहास की अनमोल सम्पदा है।
दानवीरा श्रमणी ईश्वरी ___ वीर निर्वाण की छठी शती के अन्तिम दशक में साध्वी ईश्वरी का नाम आता है। भीषण दुष्काल से छटपटाते हुए सोपारव नगर का ईभ श्रेष्ठी जिनदत्त था। उसकी पत्नी का नाम ईश्वरी था। बहुत प्रयत्न करने पर भी अन्न प्राप्त नहीं हुआ, अन्त में एक लाख मुद्रा से अंजली भर अन्न प्राप्त किया । उसमें विष मिलाकर सभी ने मरने का निश्चय किया। उस समय मुनि भिक्षा के लिए आये। ईश्वरी मुनि को देखकर अत्यन्त आह्लादित हुई । आर्य व सेन ने ईश्वरी को बताया कि विष मिलाने की आवश्यकता नहीं है । कल से सुकाल होगा। उसी रात्रि में अन्न के जहाज आ गये जिससे सभी के जीवन में सुख-शांति की बंशी बजने लगी। ईश्वरी की प्रेरणा से सेठ जिनदत्त ने अपने नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर इन चारों पुत्रों के साथ आर्हती दीक्षा ग्रहण की। और उनके नामों से गच्छ और कुल परम्परा प्रारम्भ हुई । साध्वी ईश्वरी ने भी उत्कृष्ट साधना कर अपने जीवन को चमकाया। इसके पश्चात् भी अनेक साध्वियाँ हुई, किन्तु ऋमबार उनका उल्लेख या परिचय नहीं मिलता
म ऊर्जा, बौद्धिक चार्य, नीति कौशल एवं प्रखर प्रतिभा से जैन शासन की महनीय सेवा की । मैं यह मानता हूँ कि ऐसी अनेक दिव्य प्रतिभाओं ने जन्म लिया है, किन्तु उनके कर्तृत्व का सही मूल्यांकन नहीं हो सका । इतिहास सामग्री क्षत-विक्षत हो जाने से आज उनका कोई वर्णन नहीं मिलता। 0 अठारहवीं शताब्दी
तेजोमूर्ति भाग्यशालिनी भागाजी हम यहाँ अठारहवीं सदी की एक तेजस्विनी स्थानकवासी साध्वी का परिचय दे रहे हैं जिनका जन्म देहली में हुआ था। उनके माता-पिता का नाम ज्ञात नहीं है और उनका सांसारिक नाम भी क्या था यह भी पता नहीं है। पर उन्होंने आचार्यश्री अमरसिंहजी महाराज के समुदाय में किसी साध्वी के पास आहती दीक्षा ग्रहण की थी। ये महान् प्रतिभासम्पन्न थीं। इनका श्रमणी जीवन का नाम महासती भागाजी था । इनके द्वारा लिखे हुए अनेकों शास्त्र, रास तथा अन्य ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ श्री अमर जैन ज्ञान भण्डार, जोधपुर में तथा अन्यत्र संग्रहीत हैं। लिपि उतनी सुन्दर नहीं है, पर प्रायः शुद्ध है। और लिपि को देखकर ऐसा ज्ञात होता है लेखिका ने सैकड़ों ग्रन्थों की प्रतिलिपियां की होंगी। आचार्यश्री
१४० | द्वितीय खण्ड : व्यक्तित्व दर्शन
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