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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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इस दृष्टि से ऐसे अनेक मुनिजन और सतियाँ गिनती में विभिन्न और अधिक सतियाँ हों भी प्रणम्य और वन्द्य हैं अथवा पूज्य और स्तुति ऐसा विचार पुष्पवती सतीजी का नहीं है, इसलिए के योग्य हैं, उसी प्रकार विद्वज्जन हैं। ये ही आप स्वभाव से शुद्ध रुचि की, विरक्ति में लीन विश्वास के योग्य गुणी हैं और नहीं हो सकते ।३१। स्त्री को अपनी शिष्या बनाती हैं ।३५॥
कालेऽधुना विमतयो धनिलोऽग्रगण्याः , धन्यामिमां कथयितुन हि मेऽभिलाषः, मान्या भवन्ति गुणिनामपि ते समाजे । श्रेष्ठां सतीजनशुभाशुमिव प्रसन्नाम् । तस्मादहं कथयितु विरमामि वाणीम् , पहा : शुभैः सततकीर्तिपरैर्महिम्नाम्, पापे न कामकलुषे नियुनज्म्यतस्ताम् ॥३२॥ रत्नं विभाति शपथैः स्वत एव नादः ।।३६।। आज के समय में गुणियों के समाज में भी
महिलाओं के निरन्तर यशवाले अच्छे पद्यों से दुर्बुद्धि धनाढ्य अगुआ माने जाते हैं। इसलिए मैं श्रेष्ठ सतियों में चन्द्र सी खिली हई इन पुष्पवती अब चुप रहना ही चाहता हूँ क्योंकि काम के पाप सतीजी को धन्य कहने के लिए मेरी कोई चाह में और पापी के विषय में उस वाणी का मैं नियोजन नहीं है, क्योंकि यह रत्न चमकता है इसके लिए नहीं करता ।३२।
शपथों के खाने की कोई आवश्यकता नहीं होती, पूज्या भवेयुरपरे गुणिनः पुरस्तात्,
वह तो अपने आप चमकता है ।३६।। इभ्या अहो पुनरिमे धनिनां समाजे । __ मान्या भवन्तु विषमे समयेऽस्य रायः,
पद्य: पुनामि सहसा वचनं स्वकीयम्,
सत्याः यतोऽस्ति चरितं परमं पुनीतम् । तत्र द्वयोरधिकता गुणिनः प्रशस्ता ॥३३॥ सबसे पहले दूसरे गुणियों का आदर होना
प्रासङ्गिकी सुमनसां मनसानुभूतिः, चाहिए और धनियों के समाज में धनाढ्यों का गन्धस्य मे भवति हारधरस्य सङ्गात् ।।३७।। आदर/धन की आवश्यकता के समय आने पर, सती जी का परम पावन चरित है, इसी कारण होना चाहिए । इन धनाढ्य और गुणी में गुणी की से मैं अपनी वाणी को सहसा पद्यों से पवित्र किया महत्ता प्रशस्त होती है।३३।
चाहता हुँ। अतः मैं पुष्पों की माला पहने हुए के अस्या अशेषगणिता अमितप्रभावा:, सङ्ग से स्वाभाविक पुष्पों की महक मन से अनुभव शिष्या विशालहृदया महिमाधिकायाः । करता हूँ क्योंकि गुणकीर्तन के ये स्वाभाविक सन्त्येव किन्तु सुमतेरपि पुष्पवत्याः, परिणाम हैं ।३७। रत्नत्रयाशययतेर्मतिरेव भिन्ना ॥३४॥ जाने सती स्वयमियं कथयेट भीष्टम्, अधिक महत्ववाली इन रत्नत्रय आश्रय
स्वाशीर्वचो भवितुमर्हति तावकीनम् । प्राप्त हुई सुमति पुष्पवती सतीजी पर्याप्त प्रभाव
इत्थं कदापि मनसापि न तर्कयेयम्, वाली विशालहृदय गुणवती शिष्यायें हैं तो भी इनका विचार भिन्न ही है, अर्थात् शिष्याओं के
या कापि वारिम भगिनी भवतोऽ प्यवश्यम् ।३८॥ बनाने का विचार कुछ और ही है ।३४॥
मैं जानता हूँ कि स्वयं सतीजी अपने आप में
यही कहती होयेंगी कि यह सब आपका मनोऽ संख्याक्रमेण विविधा अधिका भवेयुः,
भिलषित शुभ आशीर्वचन होने के योग्य है, मैं तो, सत्यो रुचेर्न विषयः खलु युष्पवत्याः ।
जैसा भी आपने कहा है, ऐसा कभी मनसे भी तर्क तस्मादियं प्रकृतिशुद्धरुचिविरत्याः,
नहीं कर सकती। मैं चाहे जो भी कोई हूँ, किन्तु मैं मग्नां स्त्रियं प्रकुरुते भवती स्वशिष्याम् ॥३५॥ आपकी भी बहिन अवश्य हूँ ।३८।
१२४ | प्रथम खण्ड : शुभ कामना : अभिनन्दन
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