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साध्वारत्नपुष्पवता आभनन्दन ग्रन्थ)
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यह जगत अन्तोगत्वा क्षण के लिये भासगान होकर मिथ्या है। मिथ्या अर्थात् है भी और नहीं भी ! वन्दनीया साध्वी श्री ! क्षण-भासमान होते हुए भी जगत क्षण के लिये भी है तथा क्षणों के काल प्रवाह में उद्भवित और तिरोहित होता हुआ यह जगत तथा जीवन भी है। अनन्त का अर्थ ही क्षणों का अपने बिम्ब (रूप) तथा नामों सहित स्मृति और विस्मृति में बहते रहना है-काल ! काल का अर्थ जाति, आयु तथा भोग हो होता है हो सकता है। इसोलिये प्रज्ञावान मानव, प्राज्ञ, अन्त में यही कहता है "यह जगत क्षणों के लिये है तथा अपने नाम-रूप एवं गुण-धर्मों के प्रवाह में सनातन है-अनन्त है। है भी और नहीं भो, वही "मिथ्या" है। अतः जगत तथा जोव असद् नहीं है; मिथ्या हैं।
(४)-साध्वी श्री पुष्पवतीश्री ! आपश्री की जीवन-साधना को सुनकर मुझको ऐसा लगता है, आप जैन-दर्शन की अपनी आँखें उलटकर परम शाश्वत आत्मचैतन्य की ही खोज-खबर करती रही हैं और आप अपने मूलतः स्वभाव से तादात्म्य प्राप्त कर चुकी है। मानव-जीव जगत के सुख-दुःखमय प्रारब्ध भोगते, काटते हुए भी प्रति निमिष, ज्ञात-अज्ञात, परम चैतन्य के अनादि में सरकना चाहता है, गिरना चाहता है-डूबना तथा लीन होना चाहता है, आप श्रीमती यह जान गई हैं कि शब्द है वहाँ तक वाणी हैं, वाणी है वहाँ तक विद्या है तथा शास्त्र है। भव-जीवन है तो अनिवार्यतः आ है कर्म है तो बन्धन है-जन्म-मरण है ! इसलिये मैं आपको पुकार कर आत्म-चैतन्य की ओर उन्मुख होना चाहता हुँ ! आप जैसे साधकों ने ही अनाथ दीन, तुष्णातुर भयार्त और भयभीत बँधे हुए जीव को कहा है "तत्त्वमसि ;' यह तत् आत्मा हो है-आत्मवैतन्य ही है ! निर्मल, शुद्ध, बुद्ध, भय, मुक्त तथा अभय और अभेद से पूर्ण परिपूर्ण आनन्द तथा प्रसन्न अस्तित्व आत्म-चैतन्य ही जन्म-मरण के परे और पार मेरा अन्तिम लक्ष्य-वेध है । इस लक्ष्य-वेध की प्रेरणा गृहस्थ जीवों को आप जैसी विदुषी साध्वी श्रीमती से ही मिलती है।
(५)--आप साध्वीरत्न ने संकल्पकर गृहस्थ जीवन को अंगीकार नहीं कर जन्म-मरण के सनातन चक्र से अलग ही कर लिया है तथा काल-बन्धन को आत्म-चैतन्य के सतत् और गहन ध्यान द्वारा प्रायः काट ही लिया है । आप इसीलिये मानव-जीवन के लिये आत्म शौर्य की प्रतीक बनकर अजर-अमर सच्चिदानन्द चैतन्य की ओर हमें प्रेरित करती तथा कर्षित रखती है । मैं आपका अभिनन्दन करते हुए आपको प्रणाम करता हूँ, क्मोकि जैन-दृष्टि द्वारा ही में प्रथम बार आत्म-चैतन्य का ध्यान कर सका हूँ और श्वेत-केतु को सम्बोधित कर सका हूँ-आज आत्म-चैतन्य की धारणा को प्रदान करने के अनुग्रह को शिरोधार्य कर में ही आपको पुकारता हूँ।
"तत्त्वमसि पुष्पवती ! साध्वीश्री!" ।
साधनारति महासती पुष्पवती
-कमला जैन 'जीजी'
इस परिवर्तनशील संसार में समय का कोई हिसाब नहीं रख सका, इसे कोई सीमा में नहीं बँध सका और न ही इसके प्रवाह को पल भर के लिये भी कोई रोक सका है। यह निरंतर अजस्र गति से प्रवाहित होता चला जाता है । जिसे हम भविष्य कहते हैं वह रोज वर्तमान बन कर सामने आता है तथा वर्तमान अतीत बनकर इतिहास में परिवर्तित हो जाता है । इस बीच जीवन में कितनी घटनाएँ घटती हैं तथा सुख और दुख के कैसे-कैसे रंग गहरे होकर धूमिल हो जाते हैं, इसकी परवाह समय नहीं करता।
साधनारति महासती पुष्पवती | ८१
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