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साध्वारत्न पुष्पवता अभिनन्दन ग्रन्थ
FREPHIEFHiमम्मम्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म
मस्तिष्क में सख्त घृणा है । अपने मुक्त-विचारों के If character is lost, Everything is lost." रूप में आप जन-जन के अन्तर्मानस में समायी “यदि धन गया तो कुछ नहीं गया, यदि
स्वास्थ्य गया तो कुछ गया, और यदि चरित्र गया ___ आपके जीवन से सम्बन्धित कतिपय उदाहरणों तो सब कुछ चला गया।" चरित्र रूपी पारसमणी को मैं निम्न रूप से अपने लेख में उट्ट कित कर
के संस्पर्श से मानव का जीवन उन्नत/समुन्नत रही हूँ
बन जाता है। सम्यक आचरण और चरित्र की [१] विनम्रता एवं सरलता की प्रतिमूति
भारतदेश को आवश्यकता है। साधक वाक्चा प्रभ महावीर ने पावापरी की धर्मदेशना में के आधार पर दूसरों को आकृष्ट करने का प्रयास अपनी पीयूषवर्षी वाणी में कहा
कर रहा है। उसका आन्तरिक एवं बाह्य जीवन ___ “सोही उज्जुयभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिदइ । पृथक्-पृथक् है । यदि साधक के जीवन में दम्भ की निव्वाणं परमं जाइ, घयसित्तिव्व पावए ॥"
प्रधानता है तो उसकी वाणी का असर जनता पर सरलता-साधना का महाप्राण है। चाहे वह
नहीं पड़ सकेगा। आज विवरण प्रस्तुत करने की गृहस्थ की श्रेणी में हो अथवा साधक की श्रेणी में जरूरत नहा, अपितु आगे आकर कुछ कार्य कर हो, दोनों के लिए ऋजभाव, निष्कपटता, आवश्यक दिखाने का है। सरलता से संयमी जीवन चमकही नहीं, अति आवश्यक है। घृतसिक्त अग्नि के दमक उठता है । उसमें एक नया निखार आ समान सहज एवं सरल साधना ही निर्धम एवं जाता है। निर्मल होती है। श्रमण एवं श्रमणी जीवन में जिन महासती श्री पुष्पवतीजी म.. सद्गुणों की अनिवार्यता होती है, उनमें से विनय
विनम्रता की पंक्ति में अपना अग्रिम स्थान रखती गुण साध्वाचार की अग्रिम पंक्ति को सुशोभित करता है । आपका जीवन विनम्र ही नहीं, अति विनम्र -है। 'विणओ धम्मस्स मुलं'-विनय धर्म का मल है है । आपकी धारणा है कि एक-दूसरे से दर रहकर ! और "माणो पावस्स मुलं"-अभिमान पाप का मूल सकोणता की खाई को पाटा नहीं जा सकता है।
है। जिस साधक के अन्तर्हृदय में अहंकार रूपी वह दूरी तो स्नेह-सौजन्य, विनम्रता आदि से ही काला-कलूटा नाग अठखेलियाँ कर रहा है, वह मिट सकती है। महासतीजी म० जैसी अन्दर है, साधना का सच्चा अमृत सम्प्राप्त करने में असमर्थ
वैसे ही बाहर है। आपमें नख से लेकर शिख तक रहता है। साधना और अभिमान में क्रमशः सरलता की किरणें चमकती है । "मनस्येकं वचस्येक "तेजस्तिमिरयोरिव" तेज और अंधकार की तरह
कर्मण्येकं महात्मनाम्" इस संस्कृत उक्ति के अनुरूप वैर/विरोध है । स्नेह, सौजन्य एवं विनम्रता ऐसे आपकी वाणी सरल, विचार सरल और जीवन का सर्वश्रेष्ठ कवच के समान है, जिसका कोई भी भेदन प्रत्येक व्यवहार सरल है। कहीं पर भी लुकावनहीं कर सकता है।
छिपाव नहीं, दुराव नहीं । “धन्य है आपका ___सरलता के अभाव में साधक मुक्ति रूपी मंजिल ऋजुमानस ! धन्य है आपकी मृदुलता !! | का वरण नहीं कर सकता है । वर्तमान विश्व पर [२] तितिक्षा को धती-अनेक प्रतिकूल और
जब हम दृष्टिपात करते हैं तो हमें यह मालूम होता अनुकुल उपसर्ग और परीषह उपस्थित होने पर भी है कि नैतिक चरित्र का शनैः शनैः पतन होता साधु डटकर उनका सामना करता है। वह कभी उन जा रहा है । अंग्रेजो के एक विचारक ने लिखा है- कष्टों से विचलित नहीं होता है । “तितिक्खा
"If wealth is lost, Nothing is lost. परमं धम्म'-तितिक्षा अर्थात् क्षमा धारण करना If Health is lost, Something is lost. ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है । यह बात वह अच्छी तरह से
J४६ | प्रथम खण्ड : शुभकामना : अभिनन्दन
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