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साध्वारत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ ।
ఉపపలెంటపందం ముంబందంటణండలంలంలందండ
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प्रबुद्ध समन्वय सा धि का....
--महासती श्री सत्यप्रभाजी
(जैन सिद्ध न्त-प्रभाकर) అందించిందించండించడంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంశాలు इस जगत के विशाल प्रांगण पर जब हम दृष्टि
"जीवन-चरित्र महापुरुषों के, पात करते हैं तो हमें यह अवगत होता है कि सहस्रों
हमें नसीहत करते हैं। व्यक्ति प्रतिपल/प्रतिक्षण जन्म लेते हैं, ले रहे हैं
हम भी अपना जीवन स्वच्छ, है और साथ ही साथ अपना आयुष्य पूर्ण करके यहां
रम्य कर सकते हैं । से विदाई भी लेते हैं। "पूनरपि जननम्, पुनरपि
इस भारत की पुण्यधरा पर, मरणम्"--जन्म लेना और काल धर्म को प्राप्त करना
समय पड़ने पर जो आवे काम । इस सृष्टि का अटल एवं शाश्वत नियम है । लेकिन
हमें चाहिए हम भी अपना, जो व्यक्ति जन्म लेकर अपने जीवन-काल में विशिष्ट
बन जायें पदचिन्ह ललाम ॥" कार्य करते हैं, तप-त्याग की उच्च भूमिका पर अनादि-अनन्तकाल से भारत की श्रमण आरूढ होते हैं। उनका नाम ही लोगों की जिह्वा पर संस्कृति की परम्परा में सन्त-सती मण्डल का महान सदा-सर्वदा के लिए उकित रहता है। संस्कृत में योगदान रहा है। मानव जीवन के सामाजिक, एक श्लोक है
एवं धार्मिक मान्यताओं की संस्थापना में महापुरुषों "स जातो येन जातेन,
का उपकार स्मृति पटल पर सदैव चमकने लगता याति वंशसमुन्नतिम् ।
है। एवं अविस्मरणीय बन जाता है । सामाजिक परिवर्तिनि
संसारे,
संतुलन एवम् सह-जीवन की भावना के प्रसार एवं मृतः को वा न जायते ।।"
पोषण में श्रमण-श्रमणियों ने जिस कार्यक्षमता एवं उसी का जन्म लेना सार्थक है, जिससे वंश की प्रतिभा का परिचय दिया, वह संसार के इतिहास में उन्नति हो, अपनी जाति का गौरव वृद्धिंगत हो। स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है। “सन्त भारत की इस परिवर्तनशील संसार में किसका प्रादुर्भाव नहीं आत्मा है।" भारतीय इतिहास के निर्माण में वे होता अथवा कौन मरण को प्राप्त नहीं होता । आज नींव की ईंट [Foundation] के रुप में रहें और रह तक अनन्तानन्त प्राणी विश्व के रंगमंच पर आये रहे हैं। ज्ञान और वैराग्य की अक्षय ज्योति प्रज्वऔर समय पूर्ण करके काल-कवलित हो गये । इस लित करने वाली चारित्रात्माओं ने सांसारिक विध्नप्रकार का जन्म-मरण अपने-आपमें कोई महत्त्व नहीं बाधाओं की परवाह नहीं करते हुए अपार वैभव । रखता। जब तक जीवन में ज्ञान, दर्शन, चारित्र विलास से मुंह मोड़कर मानव जाति के लिए मोक्ष आदि गुणों का विकास नहीं होता, तब तक मानव का मार्ग प्रस्तुत किया । श्रमण संस्कृति के अन्तनिएवं पशु की प्रवृत्तियाँ समान रूप से गिनी जाती है। हित आचरण में पूर्ण अहिंसा, तथा विचारों में पूर्ण मानव-जीवन में धार्मिक प्रवृत्ति ही ऐसी है, जो पशु अनेकान्तवाद को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। जीवन की अपेक्षा विशिष्ट और अधिक है। जिसके जैन दर्शन, आचार और नीति के प्रायः सभी सिद्धान्त आधार से मानव पाशविक प्रवृत्तियों से ऊपर उठ- इन्हीं में समाविष्ट हो जाते हैं । जिनशासन की कर देवत्व का अधिकारी बन जाता है ।
प्रभावना में उपरोक्त सिद्धान्त उपयोगी पहलू के रूप
प्रबुद्ध समन्वय साधिका | ४३
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