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पद को बार-बार गुनगुनाये जाते हैं। इसी भांति किसान भी इस गाथा को बार-बार दोहरा रहा था । यव राजर्षि ने उस गाथा का अवधारण कर लिया, उसे स्मृति में संजो लिया। ___मुनि आगे बढ़े। मार्ग में किसी गाँव के पास से गुजरते हुए देखा कि कुछ बालक वहां गिल्ली-डंडा खेल रहे थे। यह हमारे देश की एक प्राचीन क्रीड़ा है । बीच में से मोटी तथा दोनों किनारों से नुकीली काठ की गिल्ली और डण्डे के साथ बालक गलियों में इससे खेलते हैं। छोटी-सी गिल्ली को डण्डे से आहत कर दूर उछालते हैं, कभी ऊंची उछालते हैं। दूर उछली गिल्ली को बच्चे फिर ढूंढ लाते हैं।
खेलते हुये बालकों ने जब गिल्ली को जोर से डंडे से आहत किया तो वह किसी अंध कूप में जा गिरी । वह बालकों की दृष्टि में नहीं आई । वे चारों तरफ उसे खोजने लगे पर गिल्ली उन्हें नहीं मिली। उस समय एक बुद्धिमान् बालक को यह सन्देह हो गया कि अवश्य ही गिल्ली इस अन्धकूप में जा गिरी है अत: उसने एक गाथा का उच्चारण किया
“इओ गया, तओ गया, जोइज्जति न दीसइ।
तुम्हे न दिट्ठा अम्हे न दिट्ठा, अगडे छूढा अणुल्लिया ॥" कोई कहता है इधर गई, कोई कहता है उधर गई, खोजते हुए भी दिखायी नहीं पड़ती। तुमने भी उसे नहीं देखा, हमने भी नहीं देखा। लगता है, वह अणुल्लिया अणोलिका यानि गिल्ली अगड में—अन्धकूप में जा गिरी है।
राजर्षि ने सोचा—यह गाथा भी काम की है। उन्होंने उसे भी स्मृतिपट पर अंकित कर लिया।
____ मुनि के पास दो गाथाओं का संकलन हो गया। दोनों का मन ही मन पुनरावर्तन करते हुये वे आगे बढ़े। दिन ढलने लगा था। यव मुनि अपने नगर यवपुर के बाहरी भाग में आ पहुंचे। वहां एक कुम्हार के घर ठहरे । अपनी दैनिक चर्या से निवृत्त होकर मुनि बैठे थे। उन्होंने देखा कुम्हार के घर में चूहों के बहुत सारे बिल थे । मोटे-मोटे मूषक इधर-उधर दौड़ रहे थे, बिलों में जा रहे थे, आ रहे थे । चूहों को इस प्रकार खेलते हुए देखकर कुम्हार ने अपनी मस्ती में एक गाथा का उच्चारण किया
“सुकुमालय-भद्दलया, रतिं हिंडणसीलया। मम समा साओ नत्थि भयं, दीहपिट्ठाओ ते भयं ॥”
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श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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