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चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदा: ॥१५॥ हे कारुण्य ईश्वर ! शिष्ट जनों के द्वारा भारी आत्मावाले भी लघु हो जाते हैं, पूज्यों के सम्पर्क मात्र से ही भविजन सिद्धि को प्राप्त करते है ।सिद्धिरस के संपर्क से सामान्य धातु भी सोना बन जाती है।
आत्मा तव श्रमणपुङ्गव ! नाकगोऽपि, संहत्य हास्यजनकं मुनिभेदभावम् । एक्यं द्रुतं वितनुतादिह सम्प्रदाये,
यद्विग्रहं प्रशमयन्ति महानुभावा: ॥१६ ॥ हे श्रमणपुङ्गव ! आपकी आत्मा स्वर्ग में रहती हुई भी मुनियों के हास्यजनक भेदभावों को सहृदयी करके भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में फैले हुए वैमनस्य को शीघ्र शान्त कर देती है, उनमें एकता हो जाती है यह सब महापुरुषों का ही प्रभाव है।
आनन्दमीश ! विजयं च स्याद् विधत्ते भिख्यापि ते तनुमतामिह चिन्त्यमाना। भक्त्या स्मृतं सपदि जालिदेवतायाः,
किं नाम नो विषविकारमपाकरोति? ॥१७ ॥ आनंद के स्वामी ! आपके चिन्तन मात्र करने से विजय प्राप्त होती है, क्या भक्ति से गारुड़ी मंत्रों द्वारा नाम मात्र लेने से शीघ्र ही विष-विकार दूर नहीं होता?
वेदादिवाङ्मयमशेषमृषीश ! बुद्धया, सम्यक्तयाऽत्र भवता परिणामितं द्राक् । वाग्वर्गणा कविजनैरखिलैः किमेका,
नो गृह्यते विविधवर्णविपर्ययेण? ॥१८ ॥ ऋषीश्वर ! आपने अपनी बुद्धि के द्वारा संपूर्ण वेद आदि वांगमय को अल्प समय में ही जान लिया, समस्त लोक में रहे हुए कवि लोग क्या विविधरुप से वाणी को ग्रहण नहीं करते? अर्थात् करते हैं।
गर्भागतस्य भगवंस्तव वार्तयापि, तेजोनिधेः परिजनो मुमुदे समग्रः । दूरेऽस्तु भास्वदुदय: प्रभयापि तस्य,
श्री विजयानंद प्रशस्ति
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